१४६ पदुमावति । ८ । नागमति सुया-संवाद-खंड । [६२ दोहा। = कन्या - व्रत करे। रहइ जो पिउ के अासु अउ बरतइ होइ खौन । सोइ चाँद अस निरमर जरम न होइ मलौन ॥ १२ ॥ उतर = उत्तर । धाइ = धाई = धात्री। रिसाई = क्रोध कर = रोष कर । आपु-हि- अपनी-हौ । बुधि = बुद्धि। अउरहि = अपरहि = दूसरे को। खाई = खाता है। बाला बालिका बेटौ। कर = हाथ । घाला = नाश । मोहागू = सौभाग्य । बिरस -विरम = फौका-पन । बिरोध = वैर-भाव। पद = -अपि = निश्चय । जोगि = योग कर के =नियम कर के। बिनु = विना । हरदि = हरिद्रा । पिराई = पौला पन । मरिश्रद मर जाइये। जौज =जो जाइये। कोह क्रोध । साधा= श्रद्धा । बरत खौन = क्षीण = दुर्वल । निरमर = निर्मल । जरम जन्म । मलौन = मलिन = मैला ॥ तब धाई ने रिस कर के उत्तर दिया, (कि) रिस से अपनौ-ही बुद्धि औरों को खाती है, अर्थात् रिस से अपनी बुद्धि, चाण्डाल-स्वरूपा हो कर, और निरपराधियों को खाने लगती है। मैं ने जो कहा, कि बेटौ (बाला) रिस न करो, (क्योंकि) दूस रिस के हाथ (कर) से कौन (को) नाश ( घाला) को नहीं प्राप्त हुआ (गणऊ) । ( परन्तु हूँ न मानौ, और ) रिस से भरी आगे नहीं देखी, (कि क्या होने वाला है)। (सो सुन तो मही) रिम में किस को सौभाग्य हुआ है, अर्थात् भला हुआ है ॥ निश्चय (समझो) रिम-हौ से विरस और विरोध होता है। (जो) रिस को मारता है, अर्थात् रोकता है, तिसे कोई नहीं मारता ॥ जिसे रिस है, तिस के यहाँ नियम से, रस नहीं जाता। और जहाँ रस-ही नहीं है, अर्थात् नौरस है, तहाँ रस के विना हरदौ के ऐसी पिपराई होती है, अर्थात् नौरम होने से उस का चेहरा सर्वदा हरदी के ऐसा पौला रहता है। जिस रिस को कर (पौला होते होते ) मर जाइये, और जिस रस से जो जाइये । उम (मो) रस को त्याग कर (तजि ), रिस और क्रोध (कोह) न कौजिये। (जो क्रोध शरीर के भीतर ही रहता है, प्रगट नहीं होता, उसे रोष वा रिम कहते हैं, वही प्रगट होने से क्रोध कहाता है) ॥ कान्त (कंत) का सौभाग्य, अर्थात् पति-सौख्य, ( केवल ) श्रद्धा, अर्थात् इच्छा से नहीं पाया जाता । (उस सुख को) वही (सोई) पाता है, जो ( अपने ) चित्त ( = चित) को उस में (श्रोहि), अर्थात् उस पति में, बाँध देता है। -
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