१०] सुधाकर-चन्द्रिका। १४३ अमृत कारण वह फल विष-मय हो गया। प्रातःकाल माली ने उसे पाँछ खच्छ कर रानी को डेवढी पर भेज दिया। रानी ने नया फल समझ, उसे कुत्ते को खिलाया। कुत्ता खाते-हौ मर गया। इस पर रानी को बडा क्रोध हुआ, और यह समझ कर, कि दुष्ट तोते ने हम लोगों के लिये विष लाया है, तोते को मरवा डाला, और यह सब वृत्तान्त राजा से भी कह सुनाया। पीछे से एक दिन बूढे मालो से उस को बुढिया स्त्री किसी कारण नाखुश हो, विचारो, कि चलो उसो विष-फल को खा कर मर जायँ, यह सोच उसौ वृक्ष में से एक फल को तोड कर खा गई। खाते-हो वह जवान हो गई। बूढा माली भी, उसे ढूंढते ढूँढते, उमौ वृक्ष के नीचे आया, और उस की यह गति देख चकित हो, पूछने लगा। उस से सब वृतान्त सुन उस ने भी एक फल को खाया और तुरन्त जवान हो गया। जब वह डालो ले कर राजा के सन्मुख गया राजा ने उस के जवान होने का कारण पूछा तो जान पडा, कि होरा-मणि तोते के फल के प्रभाव से, ये दोनों जवान हो गये, दूस पर राजा को बडा ताप हुआ, कि हाय, रानी ने विना समझे ऐसे तोते को मरवा डाला ॥ (राजा मन में विचार करता है, कि) वह होरा-मणि शुक पण्डित है, जो कुछ बोलता है, (जानों) मुख और निर्दोष रहता है, पण्डित से धोखा नहीं पड़ता है, अर्थात् पण्डित किसी से धोखा नहीं खाता | पण्डित की जिहा मुख मैं (सदा) शुद्ध, अर्थात् पवित्र, रहती है, पण्डित निर्बुद्धि अर्थात् विना बुद्धि की बात नहीं कहता ॥ पण्डित सु-मति (सुन्दर मति) दे कर पन्थ में (सु-राह में) लगाता है, जो कु-पन्थ (खोटौ राह) है, वह तिस पण्डित को नहीं भाता (मोहता) ॥ पण्डित का मुख (बदन ) ललित और श्रेष्ठ होता है। जो हत्यारा है वह (सो) रुधिर देखा जाता है, अर्थात् उस का मुख रुधिर सा देख पडता है। (यह सब सोच कर राजा ने कहा, कि) हे नागमती (मती), या (को) तो शरीर (घट) में प्राण को ले श्रावो, अर्थात् मेरो शरीर शुक के विना बे-प्राण को हो रही है, मो या तो शुक को ले पा कर मेरो शरीर में प्राण दो। या तो (को) चल कर शुक के सङ्ग में मती हो, अर्थात् शुक के साथ तुम भी भस्म हो जाव ॥ कवि कहता है, कि यह मत (जनि) जानो, कि अवगुण कर के मन्दिर में सुख और राज्य होता है। अपने स्वामी को श्राज्ञा मिटा कर किस का अकाज नहीं होता, अर्थात् सब का अकाज होता है॥ ६० ॥ पण्डित दुःख
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