८८-०] सुधाकर-चन्द्रिका। १४१ प्राभरण जैसे वधिर से बहिर । राता= रक्त = लाल । बमारित्र= बैठाइये। सुठि = सुष्छु। कान = कर्ण। श्राभरन = गहना। मोन = वर्ण = मोना। धाई ने ऐसौ मति माज (कर) एक को रकबा, अर्थात् रख छोडा। रात्रि में (जब) राजा श्राया (शुक का) खोज हुत्रा | रानी ने मान (अभिमान) से उत्तर दिया, कि पण्डित शुक को बिलैया ने ले लिया ॥ (शुक के मरने का ताप राजा को न हो, इस लिये एक को निन्दा करने लगी, कि) मैं ने सिंहल के पद्मिनी को पूँछा, (कि वह कैसी है)। (इस पर उस ने ) उत्तर दिया, कि तुम नागिनी (उस के आगे) कौन हो, अर्थात् कुछ नहीं हो ॥ वह ऐसी है जैसे दिन और तुम अँधेरी रात हो । जहाँ वसन्त ऋतु है, वहाँ करौल को बारौ (बगौचा) को कौन गणना है ॥ रात्रि ( काली नागमती) का राजा तेरा पुरुष (खामो, राजा रत्न-सेन) क्या है, अर्थात् कुछ नहौं। उलू (उलूक) दिन का भाव ( प्रभाव) नहीं जानता (क्योंकि वह रात्रि-चर है)। (सो) कोट में गोटी-सा जो पक्षी, वह क्या है, अर्थात् कुछ भी आदर योग्य नहीं है। (जो दुष्ट) छोटी जीभ से ऐसौ बडौ बोली कहता है ॥ जो जो (वह) बात कहता है सो (जानौँ उस के मुख से ) रुधिर चूता है। और (उस का) मुख भोजन करने, वा भोजन न करने, पर लाल-ही रहता है, अर्थात् प्रेम से खिलाये वा न खिलाये, सर्वदा क्रोध से लाल मुख किये रहता है । (मो) यदि शुक (चाहे) भली भाँति सुन्दर (भी) हो, तो (भी) उसे माथे पर नहीं बैठाना चाहिए। (क्योंकि ) उस मोना-हौ को ले कर क्या करेंगे, जिस के गहने से कान टूट जाय, अर्थात् यद्यपि देखने में एक मनो-हर है, तथापि उस की बोली से हृदय विदौर्ण हो जाता है। दूम लिये ऐसे शक का न रहना-ही उत्तम है ॥ ८८ ॥ चउपाई। राजद सुनि बिग तस माना। जइस हिअइ बिकरम पछिताना ॥ वह होरा-मनि पंडित सूत्रा। जो बोलइ मुख अंबित चूा ॥ पंडित दुख-खंडित निरदोखा। पंडित हुते परइ नहिं धोखा ॥ पंडित केरि जीभ मुख सूधौ। पंडित बात कहइ न निबूधौ ॥ पंडित सु-मति देइ पँथ लावा। जो कु-पंथ तेहि पँडित न भावा ॥
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