१४० पदुमावति । ८ । नागमित-सुधा-संबाद-खंड । [ cc - CE आदमियों को बला लाल चिडिया के शिर जाती है)। अर्थात् रानौ का अपराध रानौ के नट जाने से मेरे ऊपर श्रावे ॥ मो एक हत्या और एक पाप ये दोनों छिपाये से नहीं छिपते। (चाहे कुछ काल तक छिपे रहैं), परन्तु फिर अन्त में आप-हौ से साक्षी दे कर विनाश करते हैं, अर्थात् पाप अकेले में भी किया जाय, तो भी आप-हो गवाह हो कर प्रगट हो जाता है ॥ ८८॥ 9 चउपाई। राखा सुत्रा धाइ मति साजा। भाउ खोज निसि आपउ राजा॥ रानी उतर मान सउँ दीन्हा। पंडित सुश्रा मँजारौ लौन्हा ॥ म. पूँछौ सिंघल पदुमिनी। उतर दोन्ह तुम्ह को नागिनी ॥ वह जस दिन तुम्ह निसि अधिभारी। जहाँ बसंत करौल को बारी॥ का तोर पुरुख रइनि कर राज। उलू न जान दिवस कर भाज ॥ का वह पंखि कोटि मह अस बडि बोलि जीभ कह छोटी ॥ रुहिर चुअइ जो जो कह बाता। भोजन बिनु भोजन मुख राता ॥ गोटी। दोहा। माँथइ नहिँ बइसारित्र सुठि सूत्रा जउँ लोन । कान टूट जेहि आभरन का लेइ करब सा सोन ॥८॥ साजा=सजा बनाया = किया। मान = अभिमान । करौल = एक काला वृक्ष व्रज में बहुत होता है, वसन्त ऋतु में भी पत्ते दूस में नहीं होते, भर्तहरि ने भी लिखा है कि “पत्त्रं नैव यदा करौल-विटपे दोषो वसन्तस्य किम्” । पुरुख = पुरुष । रनि = रजनौ=रात्रि । राऊ = राजा। उल = उलक = खूसट = कुचकुचवा । भाऊ= भाव। पंखि = पक्षी। कोटि मह = कोट में = किले में । जो कोई कोटि से करोर कहते हैं मो ग्रन्थ-कार का अर्थ नहीं जान पडता, क्योंकि ग्रन्थ-कार करोर के अर्थ में क्रोड का प्रयोग करते हैं। ३ रे दोहे को ६ वौं चौपाई देखो। गोटीखेलने के लिये काठ वा पत्थल के रंग-दार छोटे छोटे टुकडे । जीभ = जिका । रुहिर = रुधिर,
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