१३८ पदुमावति । नागमति-सुधा-संबाद-खंड । [co-et 3B राजा सुन कर वियोगी (विरक्त) हो कर, राज्य (राज) को छोड कर योगी हो (सिंहल-द्वीप को) चले ॥ (क्योंकि) विष के रखने से (विष-ही होता है) अङ्गर नहीं होता। (सो) विरह-रूपौ मुर्गा शब्द न दे, अर्थात् अपनी आवाज से राजा को जगा न दे, कि क्या अँधेरी रात-रूपी नागमती के रूप में मोहा है; उठ, भोर हुआ, दिन ( पद्मावती) की शोभा देख ॥ (ऐसा सोच कर) शीघ्र दौडने-वाली (धामिनी धाविनी) जो धाई थी, उसे पुकारा, (शीघ्र दौडने-वाली धाई के पुकारने का यह तात्पर्य है, कि झट पट काम पूरा हो जाय, कोई देखने न पावे )। और हृदय में रोष को सँभार न सकी, उस (शुक) को (दूस के हाथ ) सौंपा ॥ (और कहा, कि) देख यह शुक बुरी चाल का है, जिस का (पद्मावती का) यह पाला है, तिस का भी नहीं हुआ (वहाँ से उड कर चल दिया) ॥ मुख से दूसरी (अन्य ) बात कहता है, पेट में दूसरी बात बसती है, तिसौ अवगुण से दश हाट में विका है ॥ (सो) ऐसे कु-भाषी पची को नहीं रखना चाहिए, इसे ले कर तहाँ मार (डाल) जहाँ (कोई ) गवाह (सादी) न मिले ॥ जिस दिन को (पति वियोग को) मैं नित्य डरती है, सूर्य (रत्न-सेन ) को रात्रि (अपने काले रूप) में छिपाती हूँ, अर्थात् छिपाये हूं। (उस सूर्य को) ले कर (यह शक) मेरे लिये मयूर हो कर कमल (पद्मावती) को दिया चाहता है ॥ ( नागमती अपने को नागिनी बनाया, दूस लिये शुक को, शत्रु समझ, मयर कहती है)॥ ८७ ॥ चउपाई। धाइ सुत्रा लेइ मारइ गई। समुझि गिवान हिअइ मति भई ॥ सुत्रा सो राजा कर बिसरामौ। मारि न जाइ चहइ जेहि सामौ ॥ यह पंडित खंडित पइ रागू। दोस ताहि जेहि सूझ न अागू ॥ जो तिपाइँ के काज न जाना। परइ धोख पाछे पछिताना॥ नागमती नागिनि-बुधि ताऊ। सुआ मजूर होइ नहिँ काऊ ॥ जो न कंत कइ आसु माँहा। कउनु भरोस नारि कइ बाँहा ॥ मकु यह खोज होइ निसि आई। तुरइ रोग हरि माँथइ जाई ॥
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