यू - ce ] सुधाकर-चन्द्रिका। १३५ कौन — वह । नारी= स्त्री = नाग-मतो। जब एक पद है, तब सोनारौ = स्वर्णकारिणौ सोना- रिन। कमउटौ = कषवटी = सोना कसने को काले पत्थल को बटिया। अउपन-वारी = ओपने-वारी= सोने के वर्ण को दिखाने-वारौ= सोने के श्राब को दिखाने-वाली। भलहि = भला = अच्छा = सुन्दर । नाहा = नाथ = स्वामी। बानि = वर्ण । कसि = कस कर। कस = कैसा । सोना = स्वर्ण । लोना = लवण = सुन्दर । कउनु = = क्व नु। दिमिटि = दृष्टि। रुप-मनौ = रूप-मणि । सत = सत्य । पान = श्राज्ञा = शपथ = करूम ॥ तहाँ पर दश पाँच दिन जो (रहते ) हये, (दूसो में ) राजा कही आखेट में गये ॥ (इतने में ) रूप-वती नाग-मती (राजा को) रानी जो कि सब रनिवास और पाट में प्रधान धौ, श्रङ्गार कर हाथ में दर्पण लिया, (उप्स में ) (अपने ) दर्शन (प्रतिविम्ब ) को देख कर जीव में गर्व किया, (कि मेरे समान कोई नहीं)॥ वह (सो) नारी वा वह सोनारिन हसतो हुई, शक के पास श्रा कर, (शुक को) ओपने- वारी कसौटी को दिया, अर्थात् रूप-स्वर्ण को परीक्षा करने को कहा ॥ कि हे भले शुक और खामौ (नाह) के प्यारे, जग में मेरे रूप का कोई है ॥ हे एक, (रूप- रूपी सोने के ) वर्ण को कम कर कह, कि कैसा मोना है, और तेरा सिंहल-द्वीप कैमा सुन्दर (लोना) है ॥ तेरौ (तोरी) रूप-मणि (पद्मावती) कौन दृष्टि की है, अर्थात् उस का दर्शन कैसा है, दोनों में से (कह ), कि मैं सुन्दरौ हूँ, अथवा वह (तेरी) पद्मिनी (पद्मावती) ॥ हे शुक (सुअटा), तुझे राजा को शपथ है, जो सत्य न कह । ( बताव ) इस जगत में मेरे रूप के समान कोई है ॥ ८५ ॥ = चउपाई। एक एक त सरि रूप पदुमावति केरा। हंसा सुपा रानी मुख हेरा ॥ जेहि सरवर मँह हंस न आवा। बकुलो तेहि जल हंस कहावा ॥ दई कौन्ह अस जगत अनूपा । आगरि रूपा॥ कइ मन गरब न छाजा काहू। चाँद घटा अउ लागेउ राहू ॥ लोन बिलान तहाँ को कहा। लोनी सोइ कंत जेहि चहा ॥ का पूँछहु सिंघल कइ नारी। दिनहि न पूजइ निसि अधिभारी पुहुप सुगंध सो तिन्ह कइ काया। जहाँ माँथ का बरनउँ पाया ॥
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