१३४ पदुमावति । ८ । नागमती-सुत्रा-संवाद-खंड । [-५ अथ नागमती-सुधा-संवाद-खंड ॥८॥ चउपाई। - दिन दस पाँच तहाँ जो भए । राजा कतहुँ अहेरइ गर॥ नाग-मतौ रुपवंती रानी। सब रनिवास पाट परधानी॥ का सिँगार कर दरपन लीन्हा। दरसन देखि गरब जिउ कौन्हा ॥ हँसत सुत्रा पहँ आइ सो नारी। दीन्ह कसउटौ अउपन-वारी॥ भलहि सुत्रा अउ प्यारे नाहा। मोरहि रूप कोई जग माहा ॥ सुश्रा बानि कसि कहु कस सोना। सिंघल-दीप तोर कस लाना ॥ कउनु दिसिटि तोरौ रुप-मनौ। दहुँ हउँ लोनि कि वेइ पदुमनौ ॥ दोहा। जउँ न कहसि सत सुअटा तोहि राजा कइ अान । हइ कोई प्रहि जगत मँह मोरहि रूप समान ॥८५॥ - . कतहुँ= कुत्र-हि = कहौं । अहेर = अहेर में = आखेट में । नाग-मती नाग (सर्प) को ऐसौ जिस को मति (बुद्धि) हो । रुपवंती = रूपवती सुन्दरौ। रनिवास =राज्ञी-वास = रानियों के रहने का स्थान । पौढौ = सिंहासन । परधानौ = प्रधाना । सिंगार = श्टङ्गार। कर = हाथ । दरपन = दर्पण आईना। दरसन = दर्शन - प्रतिविम्ब । गरब = गर्व । हँसत = हँसती हुई। सो पाट = पट्ट
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