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८४] सुधाकर-चन्द्रिका। राजा रत्न-सेन ने होरा-मणि को पहचाना, (चौन्हा) (कि यह कोई विचित्र जीव है)। (दूस लिये) ब्राह्मण को लाख रुपया दिया (शुक का दाम) ॥ ब्राह्मण ने आशीर्वाद दे कर यात्रा किया, और शुक जो था सो राज-मन्दिर में लिया गया ॥ कवि कहता है, कि शुक के भाषा का कैसे वर्णन करूं, धन्य वह (पुरुष) है, जिम ने हौरा-मणि यह नाम रक्खा है ॥ राजा के मुख का रुख देख कर, जो बोलता है, मो जानों हृदय-रूपी हार में मोतियों को पिरोता है (पिरोत्रा = प्रोत करता है -पिरोता है ) ॥ यदि बोलता है, तो सब माणिक्य और मूंगा, अर्थात् माणिक्य और मूंगा के सदृश, नहीं तो मौन बाँध कर चुप (गूंगा ) रहता है। मानौँ मार कर मुख में अमृत डाल देता है, (मेला ) अर्थात् किमी किमो विरह-वाक्य से तो सुनने-वालों को मार डालता है, फिर मार कर दूसरी अमृत-मय वाक्य से मानों मुख में अमृत डाल देता है। (इस प्रकार से ) आप गुरु हो कर, जगत को चेला कर लिया (कौन्ह ) ॥ सूर्य और चन्द्र को जो कथा है, उस को (लोगों से) कहा, (अर्थात् सूर्य कौन है, कैसे तेजो-मय हुआ, और चन्द्र कौन है, कैसे अमृत-मय हुअा, दोनों का समागम कैसे होता है, इत्यादि कथा को सुनाया) और प्रेम की कहानियों को लगा कर, अर्थात् सुना कर, (सब के चित्त को) पकड लिया । जो जो (उस की मनो-हर भाषा) सुनता है, (प्रेम से विहल हो) शिर धुनता है, (इस पर) राजा को प्रौति अपार होती जाती है। (आपस में लोग कहते हैं, कि) ऐसा (शुक) भला (अच्छा) नहीं, (यह अपनी प्रेम-कहानी से) किमी को पागल करेगा, अर्थात् इस की कहानी सुन प्रेम से कोई घर बार छोड बौरहा बनेगा ॥ ८४ ॥ इति वणिज-खण्डं नाम सप्तम-खण्डं समाप्तम् ॥ ७॥