८३] सुधाकर-चन्द्रिका। १३१ दोहा। चतुर-बेद हउँ पंडित पदुमावति सउँ मइँ रवउँ होरा-मनि मोहिँ नाउँ। सेव करउँ तेहि ठाउँ ॥८३॥ । परतापु= प्रताप। अखंडित = अखण्डित = पूर्ण अखण्ड । राजू = राज्य । भागवंत भाग्यवान् = भाग्यवन्तः । बड = वर = बडा । अउतारा = अवतार दिया। भाग = भाग्य । जोहारा = जीव-हार देता है = दण्डवत करता है (४६ वाँ दोहा देखो) = गुलाम होता है= दास होता है। पास = पार्श्व = निकट। गवना = गमन करता है= यात्रा करता है। निराम = नैराश्य = बे-परवाह। डिढ = दृढ = मजबूत = पक्का। मवन = मौन -चुप । बोलि = बोलौ = बरन । माँटौ = मृत् = मट्टी। मोला = मूल्य। मति सम्मति। भेऊ = भेद । महदेऊ = सहदेव (८१ वाँ दोहा देखो)। सराहा मराहता है (श्लाघा करना = सराहना)। पद् = अपि = निश्चय कर के। परगट = प्रगट = प्रकट। मरम = मर्म = गुप्त-भेद । चतुर-वेद =चारो वेद। रवंउ = रमऊ = रमण करता हूँ। सेव = सेवा = टहल । ठाऊँ = स्थान || (शुक ने अवसर को देख कर विचारा, कि अब अपनी विद्या प्रगट करूं जिम से राजा मोहित हो कर मुझे ले, यह सोच कर) एक ने आशीर्वाद दिया, कि आप का बडा माज (तयारी हाथी घोडे इत्यादि को), बडा प्रताप और अखण्ड-राज्य (पृथ्वी भर पूर्ण राज्य) हो ॥ (आप को) ब्रह्मा (विधि) ने बडा भाग्यवान् उत्पन्न किया, (अउतारा), (दूस जिये) जहाँ भाग्य रहती है तहाँ रूप भी (श्रा कर) दण्डवत करता है, अर्थात् दास होता है, तात्पर्य यह, कि जैसी आप को भाग्य है, वैसा-ही ब्रह्मा ने रूप भी दिया है ॥ (मो, हे राजन् ), कोई किसी के पास आशा कर के जाता है, और जो बे-परवाह (निरास ) है, वह (अपने) श्रासन-हो पर मौन हो कर दृढ ( पक्का अचल ) रहता है ॥ (हे राजन्), विना पूँछे कोई जो बोलो बोलता है, वह बोली मट्टी के मोल को होती है, अर्थात् उस का अनादर हो जाता है॥ पढ, गुन और वेद के सम्मति का भेद जान कर सहदेव पूंछने से बात कहता है, अर्थात् सकल-विद्या- निधान सहदेव भी विना पूँछे अनादर के भय से नहीं बात करते थे ॥ (श्राप यह मन में न शोचें, कि यह तुच्छ है; आप-हौ से अपने विषय में कह रहा है, मैं भी जानता हूँ, कि) कोई गुणे अपने को श्राप नहौँ सराहता, (परन्तु ) जो बिकाता है, ..
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