१२८ पदुमावति । ७ । बनिजारा-खंड । [८१-८२ अमौं-रस चितर-सेन = चित्र-सेन । सिउ = शिव। बनिज = वणिज = वनिया। हहिँ = हैं। गज-माँति = गज-मुक्ता। राते = रक्त = लाल। साव = श्याम। कंठ कण्ठ = गला। काँठा = कण्ठा = गले को धारी। डहना = डैना। पाठा = पट्टा = डैने और पीठ का जोड। = अमृत-रस। मसतक= मस्तक। टौका तिलक। काँध स्कन्व-कन्धा। जनेऊ = यज्ञोपवीत । बिश्राम = व्यास = पुराणों के कर्त्ता । सहदेऊ महदेव = युधिष्ठिर के सब से छोटे भाई। बोलि = बोलो। अरथ = अर्थ। सौम = शौर्ष। पद = = अपि निश्चय कर के। डोल = डोलता है= हिलता है। अमोल = अमूल्य ॥ (जब तक ब्राह्मण बनिजारे के साथ सिंहल-दीप को जाय और वहाँ से शुक को खरीद कर ले श्रावे), तब तक (तब लगि) राजा चित्र-सेन शिव (लोक) को तयारी किया (माजा), अर्थात् शरीर छोड खर्ग को गया, और रत्न-सेन चित्तौर (गढ) का राजा हुआ ॥ तिस के (तेहि) आगे श्रा कर यह बात चली, अर्थात् लोगों ने यह बात कही, कि हे राजन् (राजा), सिंहल के बनिये आये हैं ॥ (उन के पास ) गज-मुक्ता मौ मोतियों से भरी सब सौपी ( शुक्रि) हैं, और बहुत सिंहल-द्वीप को वस्तु हैं ॥ एक ब्राह्मण एक शुक को ले आया है जिस का सुवर्ण (कञ्चन ) मा वर्ण (वरण) अनुपम (अनूप) शोभित है ॥ कण्ठ (गले ) में लाल और काले दो कण्ठे हैं। डैने और पट्टे सब लाल वर्ण से लिखे हैं अर्थात् चित्रित हैं ॥ और दोनों रक्त नयन, रक्त अधर (ठोर) शोभित हैं, और बात (जानौँ ) अमृत-रस है, अर्थात् बातों से अमृत-रस टपकता है। मस्तक में टोका (तिलक), और कन्वे में (तीन धारी जाने) जनेऊ है, (उस के स्वरूप से और बातों से जान पडता है, कि) व्यास के ऐसा कवि और महदेव के ऐमा पण्डित है ॥ (भारत में प्रसिद्ध है, कि सहदेव बडे पण्डित थे, और भारत और १८ पुराणों के कर्ता व्यास जगत्प्रसिद्ध कवि हैं ।) (वह शुक) अर्थ से बोलो बोलता है, अर्थात् उस को बोलौ अनर्थ नहीं होती। ( उस की बोली) सुनते-हौ (प्रेम से गद्गद होने से ) निश्चय कर के शोश हिलने लगता है। ऐसा वह अमूल्य शुक है, इस लिये उसे राज-मन्दिर में (रखना) चाहिये ॥ ८१ ॥ = 11 चउपाई। भई रजाण्सु जन दउराए। बाम्हन सुआ बेगि लेइ आए ॥ बिपर असीसि बिनति अउधारा। सुआ जीउ नहिँ करउँ निरारा॥
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