O2 ] सुधाकर-चन्द्रिका। १२५ दोहा। यजमान। डेली। प्राना=अन्य। गया। पढा= पाठ पढा उभा। मारग - रक्त गवाँ कर ॥ पढि गुनि देखा बहुत मइँ हइ आगे डरु सोई । धुंध जगत सब जानि कइ भूलि रहा बुधि खोइ ॥ ७ ॥ गुन गुण । अहा = श्रामौत् = था । हो देवा = हे देव । पिंजर पञ्जर । हुति से। कूट = छूटा हुआ। कउनु = कौन = क नु । बँद = बाँद = कैद। जजमाना = घालि डाल कर। मजूमा = मञ्जूषा= सन्दूक बिकान बिकाना। गा= अगात् मार्ग राह । दउ -देव = ईश्वर । दऊँ = क्या जाने -देखें = दोनों में से । बाटा = वाट=राह। रकत = रुधिर। राता=रत = लाल। तन = तनु = शरीर। पिअर = पौत = पौली। राते = रक्त= लाल। साव = श्याम =काला। कंठ = कण्ठ = कण्ठा = गले को धारी। गौवा ग्रीवा = गला । सुठि = सुष्ठु = अच्छी तरह = अति । गिउग्रौवा गला। चौन्हा पहचाना । धुंध = धुन्ध = अन्धकार । बुधि = बुद्धि । खोइ = खो कर = (शुक कहता है, कि) हे ( ब्राह्मण) देव, तब मेरे मैं गुण था, जब पिँजडे से कूटा हुआ (पर-दार ) पक्षी (परेवा पारावत = परिंद) था | अब जो (यह ) यजमान बन्द ( कैद ) है, (उस में) कौन गुण है (जो) दूसरा (आना = अन्य ) मञ्जूषे (डेलौ ) में डाल कर बैंच रहा है। ब्राह्मण को बड़ा समझ कर देव बनाया, और अपने को उस का यजमान बनाया। इसी बात से अपनी बुद्धि और विद्या का परिचय दे दिया ) ॥ (सो) जो पण्डित होता है वह (सो) हाट में (बिकने के लिये) नहौं चढता, (मैं तो अब) बिकने चाहता हूँ, (इस लिये) पढा हुा भूल गया ॥ (में) दुम हाट में दो बाट ( मारग = मार्ग) देखता हूँ, ( एक पूर्व की ओर दूसरी पश्चिम को ओर ), (देखें) ईश्वर दोनों में से किस बाट मैं चलाता है। रोते (रोते ) ( अश्रु) रक्त से मुख रक्त हो गया, शरीर (तनु) पौलौ हो गई, (मो अब ) क्या बात कह ॥ मेरे गले ( यौवा ) में लाल और काले दो कण्ठे हैं, तहाँ पर जो दो फन्दे हैं तिन से अत्यन्त (सुठि) प्राण (जीव) के लिये डरता हूँ॥ (नर सुग्गों के गले में जवानी पर लाल काले दो कण्ठे फूटते हैं, जिन से गले में दो फन्दे बन जाते हैं । उस पर शुक की उत्प्रेक्षा है, कि दही दोनों फन्दे से डरता हूँ, कि ये जीव न ले लें, अर्थात् इन्हीं को सुन्दरता से लोग मोहित हैं, इस लिये व्याध हमें फंसाते हैं ) ॥ (शुक कहता है, कि) ( (
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