१२२ पदुमावति । ७ । बनिजारा-खंड । [७७ दोहा। साथि चला सत बिचला भy बिच समुद पहार । आस निरासा हउँ फिरउँ तूं बिधि देहि अधार ॥ ७७ ॥ झुर-दू = झूर-हौ = सूखा हुआ = विना फल का । पछितावा = पश्चात्ताप । सिखाओन सिखावन शिक्षा। हति= थी। कु-बानी = कुत्सित वाणिज्य = खोटौ बनिअई। मूर = मूल-धन । बोत्रा बोया। भुंजौ = भुंज कर। पूँजी = पुञ्ज (मूल-धन को)= मूल- धन । बेवहरिश्रा = व्यवहारौ = व्यवहार करने वाला = महाजन । बेवहारू = व्यवहार । छेकिहि = छेकेगा = रोकेगा। बारू = वार = द्वार। छूछे खाली। माथि = साथी। सत = सत्य । बिचला = विचल गया = टल गया। समुद = समुद्र। पहार=प्रहार = श्राम = श्राशा। निरामा = निराशा। बिधि = ब्रह्मा । अधार = श्राधार पहाड। अवलम्ब ॥ - (५ वौँ चौपाई में जनम के स्थान में जरम पाठ भी है। उस का भी अर्थ जनम है। पश्चिमोत्तर-प्रदेश में छोटी जातियों में अब तक “जरम” प्रचलित है। कवि प्रायः सर्वत्र जनम प्रयोग करता है, दूस लिये हम ने जनम पाठ रकबा है)॥ ब्राह्मण पछताता है, कि हाय,) मैं झरे-हौ खडा हूँ काहे को यहाँ आया। ( हाय, ) वाणिज्य ( वस्तु ) न मिला ( केवल ) पछतावा रह गया ॥ इस हाट में लाभ जान कर पाया, ( मो) मूर गवाँ कर तिमी राह में (जिधर से आया था उसी राह में) चला ॥ क्या मैं मरने-हौ को शिक्षा सिखौ थी, (क्या ) मौत (मौचु ) लिखौ थौ (जो) मरने को ( यहाँ) पाया ॥ अपने चलते अर्थात् सामर्थ्य रहते ( मैं ने ) सो खोटौ बनिअई कर्म को किया, (जहाँ ) लाभ को (तो) नहीं देखता हूँ ( परन्तु ) मूर को हानि ( नुक्सान ) हुई (यह अवश्य ) देखता हूँ, (देख क्रिया का दोनों ओर अन्वय है)। क्या मैं उस जन्म में भूज कर (कर्म-वीज को) बोया था, (जिस का फल न देखने में आया (भूज कर बीज बोने से वृक्ष नहौं उत्पन्न होते दूस लिये फल होना असम्भव है), (जो) घर को भी पूँजौ खा कर चला ॥ जिस व्यवहरिया का व्यवहार है, अर्थात् जिस महाजन से लेन देन है, वह यदि द्वार 0 केगा (रोकेगा), तो क्या ले कर ( उसे) देंगे ॥ खाली हाथ ( ठूछे ) घर कैसे पैलूंगा, तिन ( महाजन ) लोगों से पूछने पर कौन उत्तर देऊँगा ॥ =
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