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७६ - ७७] सुधाकर-चन्द्रिका। १२९ -कोटिन = करोडौँ। बसतु वस्तु = चौज। सहमन्ह = सहस्रन्ह = हजारौं। ओनाहौँ झुकते हैं। बिसाहना = मामयौ = विसाधन = अपने अपने काम को चौज । बहोर = फेरा॥ चित्तौर गढ का एक बनिया व्यापार के लिये सिंहल-द्वीप को चला ॥ (वहाँ) एक अधम भिखारी ब्राह्मण था, वह भी (पुनि = पुनः) व्यापारी को चलते (देख कर ) (सिंहल-दौप को) चला ॥ किसी के यहाँ से ऋण काढ लिया, और ( मन में कहने लगा, कि ) क्या जाने, तहाँ पर ( सिंहल-दौप में) जाने से (गये) कुछ बढती (वृद्धि) हो ॥ कठिन मार्ग में (जाते), ( उसे ) बहुत दुःख हुआ, (अन्त में वह ) समुद्रों को लाँघ कर, उस (सिंहल )-दौप में गया ॥ हाट को देख कर उसे कुछ ओर (किनारा) नहीं सूझता, अर्थात् यह नहीं समझ पडता, कि इस हाट का कहाँ तक हद्द है। सभी (चौज) बहुत (ढेर के ढेर) हैं, कुछ (भौ चौज वह ) थोडौ नहीं देखता है॥ निश्चय कर के (पद् = अपि) तहाँ का वाणिज्य (व्यापार) अति ऊँचा है, धनौ (तो चौजों को) पाता है, और निर्धनौ (खडा लोगों का) मुख देखता है॥ लाखाँ और करोडौँ को वस्तु विकती हैं, हजार की ( वस्तु पर) कोई झुकता-ही नहीं । सब किसी ने अपने अपने काम को वस्तुओं को लिया, और (अपने अपने ) घर का फेरा किया, अर्थात् अपने अपने घर की ओर लौटे। तहाँ पर (भिखारौ ) ब्राह्मण क्या ले, (क्योंकि) गाँठ में माँठि (द्रव्य ) अति थोडौ थौ, अर्थात् गठरी में धन बहुत थोडा था ॥ (गाँठि = ग्रन्थि ), साँठि के लिये ३८ वाँ दोहा देखो ॥ ७६ ॥ चउपाई। झर-इ ठाढ काहे क हउँ आवा। बनिज न मिला रहा पछितावा ॥ लाभ जानि आउँ प्रहि हाटा। मूर गवाँइ चलेउँ नहि बाटा ॥ का मइँ मरन सिखाओन सिखौ। आउँ मरद मौचु हति लिखौ ॥ अपने चलत सो कौन्ह कु-बानी। लाभ न देख मूर भइ हानौ ॥ का मइँ बोआ जनम ओहि मूंजी। खाइ चलेउँ घर-हू कइ पूँजी ॥ जेहि बेवहरिआ कर बेवहारू। का लेइ देब जउँ छेकिहि बारू ॥ घर कइसइ पइठब मई ठूछे। कउनु उतर देवउँ तिन्ह पूछे ॥ - 16