पदुमावति । ६ । राजा-रतन-सेन-जनम-खंड । [७५ अथ राजा-रतन-सेन-जनम-खंड ॥ ६ ॥ चउपाई। चितर-सेन चितउर गढ राजा। कइ गढ कोट चितर जेइ साजा ॥ तेहि कुल रतन-सेन उँजिारा। धनि जननी जनमा अस बारा ॥ पंडित गुनि सामुदरिक देखहिँ। देखि रूप अउ लगन बिसेखहिँ ॥ रतन-सेन बहु नग अउतरा। रतन जोति मनि माँथइ बरा॥ पदिक-पदारथ लिखौ सो जोरौ। चाँद सुरुज जस होइ अँजोरौ ॥ जस मालति कह भवर बिगी। तस ओहि लागि होइ यह जोगी। सिंघल-दीप जाइ वह पावइ । सिद्ध होइ चितउर लेइ आवइ ॥ दोहा। भोज भोग जस माना बिकरम साका कौन्ह । परखि सो रतन पारखौ सबइ लखन लिखि दोन्ह ॥ ७५ ॥ इति राजा-रतन-सेन-जनम-खंड ॥६॥ चितर-सेन = चित्र-सेन । चितउर = चित्रवर। गढ = गाढ =दुर्ग= किला। कोट = छोटा किला। चितर = चित्र । रतन-सेन = रत्न-सेन । धनि =धन्या = प्रशंसा-योग्या । बारा = बाल = बालक । सामुदरिक = सामुद्रिक = अङ्गलक्षण से शुभाशुभ फल कहने का शास्त्र । अउतरा = अवतार लिया। जोति - ज्योति । बरा = बरती है प्रज्वलित होती है। पदिक = पद के योग्य = स्थान के योग्य = रत्न । जोरौ=जोडौ। सुरुज =
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