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७४] सुधाकर-चन्द्रिका। =खाद्य अहङ्कार कर के = चिल्ला के। गिउँ= यौवा = गला। मेला = डाला। जिउ-लेवा = जीव लेने-वाला । नाउँ= नाम । बिश्राधि= व्याधि =रोग। तिमिना = हृष्णा = लालच । खाधू भक्ष्य । दोस =दोष । अपाना = अपना। अउगुन = अवगुण । मसटिमष्ट = मुष्ट = मूसा हुआ = चुराया हुआ। मसटि भलौ = चुराये हुये धन के ऐसा भला है, अर्थात् हृत-धन का जैसा सन्तोष होता है, वैसा-ही सन्तोष अच्छा है। पखि-राज पति-राज = हीरा-मणि एक ॥ (हौरा-मणि के) उत्तर को सुन कर सब पक्षियों ने (अपनी अपनी) आँसुओं को पाँछा (प्रोक्षण किया), (और कहने लगे, कि) ऐसे श्रोछे बुद्धि-वाले (पक्षियों) के (अङ्ग में ) किस ने पक्ष बाँध दिया है, अर्थात् बुद्धिमान के अङ्ग में पक्ष रहना चाहिये, जिस से वह विशेष कार्य ले, न कि पक्षियों के जो कि उन पक्षों से विशेष कार्य लेना तो दूर है अपना प्राण भी नहीं बचा सकते ॥ ( क्योंकि ) यदि पक्षियों को उज्ज्वल (उजिारौ) बुद्धि हो, तो पढे हुए शक को मार्जारौ कैसे धरे ( पकडे) | और वन में तौतर क्याँ अपनी जीभ को उघेले, और वह (सो) क्यों हँकार कर के (बोल कर = चिल्ला कर) अपने गले में फंदे को डाले ॥ (तीतर का धर्म है, कि प्रातः काल और सन्ध्या को बडे उच्चखर से बोलता है। बहेलिये उस की बोली से पता लगा कर फंसा लेते हैं ) ॥ (पक्षी सब कहते हैं, कि) जिस दिन पक्षी (परेवा) नाम पडा, और (परौर में ) पच उठे, तिसौ दिन (हमारे लोगों का) जीव लेने-वाला व्याधा हुआ ॥ (हमारे लोगों के ) मङ्ग में भोजन को हष्णा जो है वही व्याधि हुई, ( उस रोग के वेग में ) भोजन (भुगुति)-ही सूझता है, व्याधा नहीं सूझता, (जो, कि प्राण लेने-वाला है) ॥ हम लोगों को लोभ (लालच ) है, (इस लिये ) उस ने डाला (मेला)। हम लोगों को गर्व है, (इस लिये) वह मारने चाहता है। हम लोग बेखबर (निश्चिन्त ) हैं, वह छिप कर पाता है, (दूस लिये) व्याधे का कौन दोष है (मब) अपना दोष है ॥ ऐसा वह (मो) अपराध (अवगुण)-ही क्यों किया जाय, जिम के कर्त्तव्य (कार्य = काज) से अपना प्राण दौजिए (मो), हे पक्षि-राज (होरा-मणि), अब कुछ कहना नहीं है, अब मष्ट करना-हौ भला है॥ ४ ॥ 10 चारा को इति शुक-खण्डं नाम पञ्चम-खण्डं समाप्तम् ॥ ५ ॥