७३] सुधाकर-चन्द्रिका। चउपाई। जेहि झूले ॥ सुअइ कहा हम-हूँ अस भूले। टूट हिंडोल गरब केला के बन लौन्ह बसेरा। परा साथ तहँ बइरिन्छ केरा ॥ सुख कुरार फरहुरौ खाना। बिख भा जबहिँ बिआध तुलाना ॥ काहे क भोग-बिरिख अस फरा। अाड लाइ पंखिन्ह कहँ धरा ॥ होइ निचिंत बइठे तेहि आडा। तब जाना खाँचा हि गाडा॥ सुख निचिंत जोरत धन करना। यह न चिंत आगइ हइ मरना ॥ भूले हम-हुँ गरब तेहि माँहा। सो बिसरा पावा जेहि पाहा ॥ दोहा। चरत न खुरुक कौन्ह जब अब जो फाँद परा गिउ तब र चरा सुख सोइ। तब रोए का होइ ॥ ७३ ॥ फल। गरब = गर्व। बसेरा = वास-स्थान । बरिन्ह = वैरी लोग वा वैर वृक्ष (वदरौ)। कुरार कुलालय कुल का ग्रह। फरहरी= फरहरी = अनेक प्रकार बिश्राध = व्याध। तुलाना = -तुलना किया = पहुँचा। बिरिख = वृक्ष । आड = श्रोट आवरण। जोरत = जोडते हैं = एकट्ठा करते हैं। करना=करण = सुख-साधन- सामग्रौ। विमरा= भूल गया विस्मरण हो गया। खुरुक =खोटका
खटका
संशय । गिउ=ग्रीव गरा ॥ सुग्गे ने कहा, कि (जैसे तुम लोग भूले हो माया में ) ऐसे-हौ हम भौ भूले। जिस गर्व-रूपी हिण्डोल पर झूले थे, वह टूट गया, अर्थात् जिस डैने का बडा गर्व था, वह टूट गया ॥ ( सुख की इच्छा से मैं ने ) केला के वन में वसेरा लिया, तहाँ भौ बैरियों का साथ पडा ॥ (वैरि से शत्रु और वैर-वृक्ष ये दोनों अर्थ को सङ्गति के लिये केला का उपादान किया। वैर पास होने से उस के काँटौँ से केले के अङ्ग भङ्ग हो जाते हैं ) ॥ (सो) सुख से कुल-ग्टह में फरहरियों का खाना विष हो गया जब, कि व्याधा आ पहुँचा ॥ शुक रोता है, कि हा, (यह ) भोग-वृक्ष (सुख-साधन-वृक्ष ) काहे को ऐसा ( सुखादु फल को) फरा, (जिम का) आड लगा कर (व्याधे लोग ) पक्षियों को