७०-७१] सुधाकर-चन्द्रिका। (पद्मावती को) चारो ओर ( चह पास) से सखौ (सब) समुझावती हैं, कि वह (मो) पक्षी चला गया (गा), अब (हम लोग) कहाँ पावेगी | जब तक (वह) पचौ (परेवा = पारावत) पिजडे में था, तब तक कैद था, (दूसौ लिये) नित्य (निति) सेवा किया ॥ तिस कैद से (जो) कूटने पाया, (तो) फिर (पुनि) लौट कर (फिरि) क्यों (कित) कैद होने श्रावे ॥ उस ने तिसो दिन (तदहनि= तहिद) उडान-फर को खाया (जिस फर के खाने से उडने की शक्ति हो, उसे उडान-फर (= फल ) कहते हैं)। जिस दिन (जब) पक्षी हुआ, और तन मे (तन तनु) पक्षों (पाँख) को पाया ॥ (मो) जिस का पिंजडा था तिसे (उस पिंजडे को) सौंप कर (वह) चला गया (गण्ऊ), (दूस लिये) जो जिस का था, मो तिम का हुआ ॥ (मखियाँ को निश्चय हो गया, कि उसे बिलैया ने तोड खाई, दूस लिये कहती हैं, कि जो जिम का था, सो तिस का हुश्रा, अर्थात् तेरा पिँजडा तेरे पास रह गया, और वह शुक जहाँ से (वन वा वर्ग से ) आया था, वहाँ चला गया) ॥ (मखियाँ शुक के मरने का और पक्का अनुमान करती हैं, कि) जिस पिँजडे (शरीर) में दश राह हैं (दो कान, दो नाक के पूरे, दो आँख, एक गुदा, एक मूत्रेन्द्रिय, और गल-नाल के भागे घण्टौ के कारण से दो छिट्र, इस प्रकार से दश छिद्र दश राह हुये), उस में मार्जारी (काल) से (पक्षी प्राण) कैसे बचे॥ मरने के अनन्तर फिर वह प्राण मिल सकता है कि नहीं, इस पर मखियाँ कहती हैं, कि यह पृथ्वी ऐसे (शुक ऐसे) कितने को लौल गई है (खा गई है), और दूस का तैसा कठिन पेट है वा पेट-रूपी गडहा है, कि उम्र में से फिर (बहुरि) नहीं (उस प्राणों को) ढौलती, अर्थात् निकाल देती॥ मखियाँ और भौ मरने को पक्का करती हैं, कि जिस स्थान में न रात न दिन है, अर्थात् जहाँ रात दिन नहीं होते, और जहाँ न पवन न पानी है, तिस (घोर) वन में (यम-पुरी में) जा कर (होद), वह सुगना बमा, सो रे पद्मावति उस को बान कर (अब) कौन मिलावे, अर्थात् किसी को सामर्थ्य नहीं कि अब उस को श्रान कर मिलावे ॥ ७० ॥ चउपाई। सुअइ तहाँ दिन दस कलि काटौ। आइ बिाध ढुका लेइ टाटौ ॥ पग पग भुइँ चाँपत आवा। पंखिन्ह देखि हिअइ डर खावा ॥
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