पदुमावति । ५ । सुया-खंड । [६६ - ७० अाँसुओं की ऐसी शोभा है, जानों नक्षत्रों से भरा आकाश (गगन ) है ॥ (आँसुओं की धारा से) किनारा (पालि) टूट गया, और सरोवर (जल के बढने से ) बहने लगा। (अश्रु-जल के बाढ से ) ( सरोवर के) कमल बूड गये, भ्रमर (मधुकर) उड कर भाग गये ॥ दूस प्रकार से आँसू नक्षत्र हो कर (सरोवर में ) च पडे, (जानों) आकाश को छोड कर (सब नक्षत्र) सरोवर भर में उदय हुए हैं । (पहले कह आये हैं कि अश्रु-जल के बाढ से सरोवर बह चला, तो सरोवर के बाढ से शहर क्यों नहीं बह गया। इस पर समाधान करते हैं, कि (पद्मावती के ) मोतियों को माला छटक छटक कर गिरी (चुई)। इस से अब सङ्केत (सङ्कोच ) हो गया, और (मोतियों ने सरोवर के ) • चारो किनारों को (बाँध दिया)। इस से पानी ठहर गया, शहर बूडने से बच गया ॥ (मखियों से पद्मावती कहती कि) हे सखि, यह शुक उड कर कहाँ बस गया। तुम लोग उस वास को खोजो। क्या जानें (वह शुक) पृथ्वी में है, वा वर्ग में । ( क्या) तिस (शुक) को पवन (हवा) भी नहीं पाता है ? अर्थात् बडा उडने-वाला है ? पवन से भी उस को गति अधिक है ? ॥ ६ ॥ चउपाई। चहूँ पास समुझावहिँ सखी। कहाँ सो अब पाइअ गा पँखौ ॥ जउ लहि पिंजर अहा परेवा। रहा बाँद कौन्दसि निति सेवा ॥ तेहु बंद हुति छूटइ पावा। पुनि फिरि बंद होइ कित आवा ॥ वह उडान-फर तहिअइ खाए । जब भा पंखि पाँख तन पाए ॥ पिंजर जेहि क सउँपि तेहि गणऊ। जो जा कर सो ता कर भण्ज ॥ दस बाट जेहि पिंजर माँहा। कइसइ बाँच मजारी पाँहा॥ प्रहि धरती अस केतन लौले। तस पेट गाढ बहुरि नहिँ ढोले ॥ दोहा। जहाँ न राति न दिवस हइ जहाँ न पवन न पानि। तेहि बन होइ सुअटा बसा को रे मिलावइ आनि ॥ ७० ॥ पात्र = पावेगौ। गा = अगात् = चला गया। बाँद = बन्द = कैद । सउँपि = समर्प्य समर्पण कर के। बाट₹ = बाट =राह। केतन = कितने को। लोले = खा गई। गाढ = कठिन वा गडहा । ढीले = बाहर निकासी ॥
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