६७] सुधाकर-चन्द्रिका। १०५ चहा = चाहा = इच्छा किया। पारस पारसपाषाण । निरमर = निर्मल। परसे = स्पर्श करने से। दरसे = दर्शन करने से। ममौर = वायु। मौतल = शीतल = ठण्णा । तपनि =तपन =ताप = दाह । बुझाई = बुझ गई। पून = पुण्य । दसा = दशा ततखन = तत्क्षण। कुमुद = कोई। मसि-रेखा = शशि-रेखा = चन्द्र-किरण। श्रोप कान्ति । दरपन = दर्पण = ऐना । दसन =दशन = दाँत । जोति = ज्योति= कान्ति ॥ समय। मानसर (सरोवर ) ने कहा, कि जो इच्छा किया था (चाहा) मो पाया, पारस- पाषाण-रूपो (मखियाँ) यहाँ तक (दूहाँ लगि ), अर्थात् पानी के नीचे तक, (पहुँचौं) पाई। (सच्चे पारस का धर्म है, कि जिसे छूवे उसे अपना मा कर दे, तैसे-हौ सखियाँ जिसे कूर्व वही मनोहर सुन्दर हो जाय) ॥ (वह सरोवर) तिन सखियाँ के पैरों को स्पर्श करने से निर्मल हो गया, और उन के रूप का दर्शन करने से रूप को (भौ) पाया, अर्थात् वयं श्राप भी मनोहर रूपवान् हो गया | मलय-चन्दन से मिश्रित वायु को बास (सुगन्धि) जो (मखियों के) तन (तनु = शरीर) से आई, (दूस से) (वह मरोवर) ठणण हो गया, और तपन बुझ गई, अर्थात् बहुत दिनों से पद्मावती और मखियों के मिलने की चिन्ता से जो सरोवर के हृदय में तपन थी सो बुझ गई ।। ( सरोवर कहता है, कि) नहीं जानता (जनउँ) कि (आज) कौन वायु ( पवन ) (दूस सुगन्धि को) ले कर पाया, (जिस से मेरौ) पुण्य-दशा (पुण्य का काल) प्राप्त हुई, और (मैं ने ) पाप को (गवाँबा) नष्ट किया ॥ तिमी क्षण में (सरोवर को प्रेरणा से) हार उतराय (ऊपर उठ) श्राया, और सखियों ने (उसे ) पाया, (जिम पाने को देख कर) चाँद ( पद्मावती, क्योंकि पहले सखियों ने कहा है कि 'तुम शशि होहु तराण्न माखौ') ने हँस दिया ॥ हँसने से जो शशि-रेखा, अर्थात् मुख-चन्द्र से किरण छूटौं, उन से कोई सब खिल उठौं (विगसौ ), और उस शशि-रेखा को जहाँ जहाँ जिस ने देखा, तहाँ तहाँ तिम को कान्ति (उत्पन्न ) हो गई | जिस को जिस प्रकार के रूप को दूच्छा थी, उस ने उस शशि-रेखा से वैमा-ही रूप को पाया, अर्थात् उस को वैमा-हो रूप मिल गया। (उस समय) सब कोई उस शशि-मुख ( पद्मावती के मुख-चन्द्र) का दर्पण हो रहा है, अर्थात् जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब पडता है, उसी प्रकार पद्मावती के मुख-चन्द्र का सब के अङ्ग में प्रतिबिम्ब पड़ गया। इस कारण सब कोई उस शशि का दर्पण हो गया ॥ 14
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