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६५-६६] सुधाकर-चन्द्रिका। वह तो खुश, और दूसरा अप्रसन्न रहेगा, जिस के कारण मालिक के कुशल क्षेम में बाधा पडेगा॥ मुहम्मद कवि कहते हैं, कि प्रेम के जल में यदि भावे ( अच्छा मालूम हो) तो खेलो (ऐसा खेलो, कि) जैसे तेल और फूल के संग से फुलेल तेल होता है, अर्थात् जैसे तेल और फूल मिल कर एक और सुगन्धित हो जाते हैं, उसी प्रकार प्रेम के जल में उसी के खेलने की प्रशंसा है, जो सुगन्ध-रूप हो कर ऐसा मिल जाय कि फिर पता न लगे, केवल प्रेम-मय हो जाय ॥ ६५ ॥ चउपाई। सखी एक तेइ खेलि न जाना। भइ अचेत मनि-हार गवाँना ॥ कवल डार गहि भइ बिकरारा। का सँ पुकारउँ आपन हारा ॥ कित खेलइ आइउ प्रहि साथा । ह र गवाँइ चली सइ हाथा ॥ घर पइठत पूछब प्रहि हारू। कउनु उतर पाउबि पइसारू॥ नयन सौप आँसुन्ह तस भरे। जानउ मोति गिरहिँ सब ढरे ॥ सखिन्ह कहा भोरी कोकिला। कउनु पानि जेहि पवन न मिला हार गवाँइ सो अइसइ रोा। हेरि हेराइ लेहु जउँ खोत्रा ॥ दोहा। लागौं सब मिलि हेरई बूडि बूडि एक साथ । कोइ उठी मोती लेइ काह घाँघो हाथ ॥ ६६ ॥ तद् = सो = वह । अचेत = मूर्छित = अचित्त । मनि-हार = मणि-हार = मुक्तामणि- हार। गवाँना गमन किया = चला गया खो गया। बिकरारा = विकराल = वेकरार - मर्यादा से वाहर = विकल । का सु = का सउँ: किम से। सदू हाथा = हाथ से खाली हाथ से। कउनु = कौन = क्व नु। पाउवि = पावेगी। पसारू = पैठ घर के भौतर प्रवेश करना । भोरी भुलनौ = बौरही। कोकिला == कोकिला के ऐसी बोलने- वालौ । पानि = पानीय । हेरि = ढूँढ = खोज । हेराइ = ढुंढाय = खोजाय ॥ (उन में ) एक मखौ जो थी, सो खेल को नहीं जानती थी (गलती से विना अपनी जोडौ को देखाये अपने हार को फेंक दिया, जो कि उस के ढूंढने से न मिला )। -