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१०२ पदुमावति । 8 । मानसरोदक-खंड । [६५ जउ= गोरी= गौरी= गौर वर्ण कौ। जोरी=जोडी। बहुरि = फिर । धनि = धन्य। रउताई ठकुरई = मलिकई। कूसर = कुशल । खेम = क्षेम। बारि = जल । परेम = प्रेम । जो। तउ = तो । फुलाएल = फुलेल ॥ (सब सखियाँ) नौर के बीच में केलि (क्रीडा) करने लगौं । (उन के कौडा को देख कर) हंस लजा कर तिस सरोवर के तौर पर (श्रा कर) बैठा ॥ (सब सखियाँ ने) पद्मावती को कौतुक के लिये (खेल के लिये) रख छोडौं, अर्थात् पद्मावती को अपने माथ से अलग रख छोडौं। (और पद्मावती से कहने लगौं) कि हे शशि (शशि-रूप पद्मावती), तुम्ह तारा-गों को वा डूबने-वालौं को, अर्थात् हम लोगों को साक्षी हो, अर्थात् गवाह रहो ॥ सखियों ने बाजी (बाद) लगा कर खेल को फैलाया, कि जो खेलने में हार जाय, वह अपना हार ( मुक्ताहार) दे। (जल में खेलने को अब तक यह रीति है, कि दो व्यक्ति ऐसौ बाजी लगा कर खेलते हैं, कि एक कोई अपनी चौज़ पानी में फेंकता है, उस को लेने के लिये दोनों डूबते हैं। वह चीज़ जिस को थी, वहौ यदि उस को पा गया, तो किमी की हार जीत नहीं हुई, दूसरौ वार अब दूसरा अपनी वही चीज़ वा वैसौ-हौ दूसरौ चौज़ पानी में फेंकेगा, और फिर उस के लेने के लिये दोनों डूबेंगे। जब एक को चौज़ दूसरा पावेगा, तब दूसरे को जीत होगी। कभी कभी तोसरा कोई चीज़ फेंकता है। उस को ढूंढने के लिये दो व्यक्ति आपस में कुछ बाजी लगा कर डूबते हैं। जो पा गया उसौ को जीत होती है। यदि दैवात् दोनों में से किसी के हाथ वह चौज़ न लगी, तो चौज़-ही पानी में नष्ट हो जाती है) ॥ सावरी सावरों से, और गोरी गोरी से, अपनी अपनी जोडी जो है, सो ले लिया, अर्थात् अपनी अपनी जोडी मिला लिया । (और आपस में कहने लगौं कि) एक साथ में बूझ कर, अर्थात् समझ बूझ कर, ( सब कोई) खेलो (जिम में अपना) हार पराये (दूसरे) के हाथ में न हो। (और भौ सब आपस में कहती हैं, कि बस) श्राज-हौ तक यह खेल है, फिर कहाँ यह खेल । ( क्योंकि) खेल के बीत जाने से (गये से), अर्थात् खेलने को अवस्था बीत जाने से, फिर कहाँ कोई खेलता है ॥ कवि कहता है कि धन्य वह खेल है जिसे लोग रस और प्रेम से खेलते हैं, (क्याँकि खेल में प्रायः दुःख उठाना पडता है, इस पर कहावत है, कि) रउताई और कुशल क्षेम, अर्थात् मालिक बन कर चाहे, कि कुशल और क्षेम रहे, तो असम्भव है, क्योंकि जिम का भला करेगा,