६३-६४] सुधाकर-चन्द्रिका। पद्मिनी सरोवर के तौर पर श्राई, जूरे को छोड कर (मलने के लिये), बालों को मुँह में लगाया, अर्थात् मुंह की भोर किया। (यह रौति है कि जूडे को छोड कर स्त्री लोग मलने के लिये केशों को मुँह की ओर लटका देती हैं ) ॥ केशों से ढपे मुख को शोभा कैसी है जानाँ मलयगिरि-रूपी पद्मावती रानी के शशि-रूप मुख अङ्ग को नागिनियाँ (मर्पिण गण) ने ढाँप कर (तोप कर) (उस का) अाघ्राण (सुगन्ध) लिया है॥ (वा केश नहीं हैं ) मेघ झुक पडे हैं, जिन से जग ( संसार ) में छाया (अन्धकार) पड गई है, वा जानौं राहु ने चन्द्र (पशि) का शरण लिया है (राहु काले केश, और मुख चन्द्र हैं ) ॥ (उन केशों को अंधियारौ से) दिन-ही में भानु की दशा (तेज) छिप गई, (जानों) चन्द्रमा नक्षत्रों को ले कर रात्रि में प्रकाश किया (काले केश निशि, पद्मावती का मुख चन्द्र और सहेलियों के मुख नक्षत्र हैं)॥ चकोर ने समझा, कि मेघ को घटा में चन्द्र देख पडता है, दूस लिये भूल कर तिमी स्थान में अपनी दृष्टि को लगाया (काले केश मेघ और पद्मावती का मुख चन्द्र है) ॥ उम काले केश-रूपो मेघ-घटा में (पद्मावती के ) दाँत बिजली, और भाषा (बोली) कोकिल है, और भौंह-रूपी धनुष (इन्द्र-धनुष) को ले कर गगन (आकाश) में रकबा है। नयन-रूपी दो खञ्जन क्रीडा करते हैं, और कुच-रूपी नारङ्ग का रस मधुकर भ्रमर) लेते हैं। ( पद्मावती के ) रूप से सरोवर विमोहि (मोहि) गया। दूस लिये हृदय में हिलोरा करता है, अर्थात् चञ्चल हो कर इधर उधर दौडता है। तहाँ कवि को उत्प्रेक्षा है, कि मैं कहता हूं, कि सरोवर की ऐसौ इच्छा है, कि मैं (पद्मावती के) पाँव को छूने पाऊँ। दूसौ मिस (व्याज) से लहर को देता है, अर्थात् लहरा मारता है ॥ ६३ ॥ चउपाई। धरौं तौर सब कंचुकि सारौ। सरवर मह पइठौँ सब बारी॥ पाइ नौर जानउँ सब बेली। हुलसहिँ करहिँ काम कइ केली ॥ करिल केस बिसहर बिस भरे। लहरइ लेहिँ कवल मुख धरे ॥ उठी काँपि जस दारिउँ दाखा। भई उनंत पेम कह साखा॥ नवल बसंत संवारइ करी। होइ परगट जानउँ रस भरी।
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