६२] सुधाकर-चन्द्रिका। - चउपाई। मिलहिँ रहसि सब चढहिँ हिँडोरौ। झूलि लेहिँ सुख बारौ भोरी झूलि लेहु नइहर जब ताई। फिरि नहिँ झूलन दोहौ साई॥ पुनि सासुर लेइ राखिहि तहाँ। नइहर चाह न पाउबि जहाँ ॥ कित यह धूप कहाँ यह छाँहा। रहबि सखी बिनु मंदिर माँहा ॥ गुनि पूँछिहि अउ लाइहि दोखू। कउनु उतर पाउबि कित मोखू ॥ सासु ननद कित भउँहँ सकोरे। रहबि सँकोचि दुअउ कर जोरे ॥ कित यह रहसि जो आउबि करना। ससुरइ अंत जनम दुख भरना ॥ दोहा। सासुर श्वर कित नइहर पुनि आउबि कित सासुर यह खेलि । आपु आपु कहँ होइही परबि पंखि जस डेलि ॥ ६२ ॥ बारी बालिका= थोडी उमरवालौ। भोरौ= भुलनौ । नहर = माट-ग्टह। दोही = देगा। पाउबि = पावेगौ। साई = खामो। चाह = इच्छा । गुनि = गुनना कर के समझ विचार के । पूँछिहि = पूँछेगा। लाइहि = लगावेगा। दोखू = दोष। कउनु = कौन = क्व नु । कित = कुतः = कस्मात् = कैसे। मोखू = मोक्ष । कित = कियत् । भउहँ = धू । सकोरे-सिकोडेगौ= चढावेगी। रहबि= रहेंगी। सँकोचि = सङ्कोच कर के दब करके । दुअउ =दोनों। श्राउबि श्रावेगी। ससुर = में के ग्रह में। आउबि = श्रावेगी। परबि = पडेंगी। डेलि = डेलौ = बाँस वा रहढे को झाँपौ जिस में बहेलिये पक्षी को फंसा कर रखते हैं । खेल कूद से (रहसि) सब (सखियाँ श्रापस में ) मिलती हैं और हिंडोले पर चढती हैं, और सब बारी भोरौ ( थोडे उमर को भुलनी) झूल झूल कर सुख लेतौ हैं ॥ (और आपस में कहती हैं कि ) जब तक नहर मैं हौ, तब तक लो फिर खामौ पति (ससुरे में ) नहीं झूलने देगा ॥ फिर (खामौ) ले कर ससुरे में तहाँ पर रकबेगा, जहाँ पर हम लोग नहर (जाने) की इच्छा (तक ) न करने पावेगौ ॥ फिर कहाँ यह (सरोवर के तट को) धूप, कहाँ छाँह । सखो के विना, अर्थात् अकेलौ, मन्दिर में रहेंगौ ॥ (कभी कभौँ) कुछ समझ बूझ कर (स्वामी कुछ हम - 13
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