पदुमावति । ४ । मानसरोवक-खंड । जउ लहि आहि पिता कर राजू । खेलि लेहु जो खेलहु अाजू ॥ पुनि सासुर हम गवनब कालो। कित हम कित यह सरवर पाली ॥ कित आउन पुनि अपने हाथा। कित मिलि कइ खेलब एक-साथा ॥ सासु ननद बोलिन जिउ लौहौं। दारुन ससुर न निसरइ दोहौँ॥ दोहा। पिउ पिबार सब जपर पुनि सो करइ दहुँ काह । दहुँ सुख राखड़ को दुख दहुँ कस जनम निबाह ॥ ६१ ॥ श्राउन पालि = प्रान्त = तट। रहसहि = क्रौडती हैं = खेलती हैं। नहर = मारग्रह। प्राहि = है। सासुर = श्वशरग्रह । गवनब = जायगी। कालो = कल। सरवर = सरोवर । श्रावना। सासु = श्वश्रू। ननद = ननन्दा = पति को बहिन । लौहौं = लेंगी। दारुन = दारुण = कठिन । मसुर = श्वशुर। निसरद = निकलने-निसरने । दौहौँ = देगा। निबाह = निर्वाह || सब सखियाँ खेलती हुई मानसरोदक गई, और जा कर पालौ पर ( किनारे पर) खडी हुई ॥ सरोवर को देख कर केलि (क्रीडा) से रहसती हैं (खेल कूद करतो हैं), और सब सहेलियाँ पद्मावती से कहती हैं ॥ कि अये ( अद) रानी, विचार कर मन में देख। इस नैहर (बाप के घर) में चार दिन का रहना है ॥ (इस लिये ) जब तक पिता का राज्य है, अर्थात् जब तक हम लोग पिता के अधिकार में हैं, तब तक जो आज खेलना हो खेल लो ॥ फिर (जब) हम कल सासुर (श्वशरग्टह, अर्थात् पति के घर ) जायँगी, तब कहाँ हम, कहाँ यह सरोवर-तट ॥ कहाँ फिर अपने हाथ ( यहाँ का) श्राना, और कहाँ मिल कर एक साथ खेलना है ॥ (जब हम सासुर जायँगी, वहाँ) मासु और ननद बोलियाँ से, अर्थात् व्यङ्ग वचनों से, जीव लेंगी, और दारुण श्वशर (घर से) निकलने नहीं देगा ॥ सब से ऊपर प्रिय पति है, सो क्या जानें, वह क्या करे। क्या जानें सुख से रकले अथवा दुःख से, देखें ( क्या जानें) कैसे जन्म (भर ) निर्वाह होता है ॥ ६१ ॥
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