पदुमावति । ३ । जनम-खंड । ine तोहि सेवा बिछुरन नहिँ आखउँ। पौंजर हिअइ घालि कइ राखउँ ॥ हउँ मानुस तूं पंखि पिनारा। धरम पिरोति तहाँ को मारा ॥ का पिरोति तन माँह बिलाई। सो पिरीति जिउ साथ जो जाई ॥ पिरिति भार लेइ हिअइ न सोचू । ओहि पंथ भल होइ कि पोचू ॥ पिरिति पहार भार जो काँधा। तेहि कित छूट लाइ जिउ बाँधा ॥ दोहा। 'सुश्रा न रहद खुरुकि जिउइ अब-हिँ काल सो आउ । सतुर अहइ जो करिया कब-हुँ सो बोरइ नाउ ॥ ५६ ॥ इति जनम खंड ॥३॥ उतर = उत्तर। मया = माया करुणा। किमि = कैसे। कया = काय = शरीर । परान = प्राण। परेवा = पारावत, यहाँ साधारण पक्षौ। बिकुरन = विक्षुरण = विच्छेद = जुदाई। श्राख श्राखा करती हूँ = चालती हूं, श्राखा एक जालीदार महीन वस्त्र वा चर्म से लगा हुआ एक मेडरे-दार पात्र होता है, जिस में माँटे ऑटे को रख कर चालने से मैदा निकलता है। यह एक प्रकार को चलनी है। पौंजर = पञ्जर = पिंजडा । घालि = डाल कर । मानुस = मनुष्य । पंखौ = पचौ। पित्रारा = प्रिय। धरम = धर्म । पिरीति = प्रीति। तन = तनु = शरीर। बिलाई = विलय होय = नाश हो जाय। मोचू = शोच । पोचू = पोच = नौच = खराब, बुरा। पहार = प्रहार = पहाड । कित कुतः = कहाँ । खुरुकि = खोटका = खटका = संशय = डर। जिउद् = जीव में। करिया : कर्णे = कर्णधार = पतवार पकडने-वाला मलाह। बोरदू = बोरता है = डुबा देता है। नाउनाव ॥ (तोते के कहने पर ) रानी ने करुणा कर के उत्तर दिया, कि (हे होरा-मणि) यदि जीव चला जाय तो (फिर ) शरीर कैसे रहे, अर्थात् दूं मेरे जीव के समान है, तेरे चले जाने से मेरौ शरीर नहीं रह सकती॥ इस बात को अगलौ चौपाई से स्पष्ट करती है, कि, हे होरा-मणि, वं (मेरा) प्राण-पक्षी है, तेरौ सेवा में धोखा नहीं लगा, अर्थात् मैं ने तेरौ सेवा में धोखा नहौं लगाया ॥ (सो) तेरौ सेवा में विकुडने को
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