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५५-५६] सुधाकर-चन्द्रिका। साथियों से विकुड कर, हरिनी ने हेरौ है, साथियों को ढूंढ रही है ॥ हरिनी जब माथियों से विछुड जाती है, तब चारो ओर आँखें फेर फेर कर देखती है, उस समय उस की स्वाभाविक चञ्चल और बड़ी आँखें और भी चञ्चल और बड़ी हो जाती हैं, दूस लिये कवि की उक्ति है, कि पद्मावती की आँखें अत्यन्त बडी और चञ्चल हो गई। कौर ऐसौ नामिका और कमल सा मुख सोहने लगा। पद्मिनी का रूप देख कर जग मोह गया ॥ जानौँ श्रोठ माणिक्य और दाँत होरे हैं । हृदय (छाती) में कुच (स्तन) कनक ( सुवर्ण) के जम्बौर नौबू से हुलसते हैं, अर्थात् मोहते हैं ॥ कटि (लङ्क) से केहरी (सिंह) और गमन (गति) से गज (हाथी) हार गये, (ऐसे रूप को देख कर )। देवता (सुर) और मनुष्य (नर) भूमि में माथा धरते हैं, अर्थात् माथा टेकते हैं । अर्थात् पद्मावती को देवी कला समझ पादर से भिर को भूमि में टेक कर प्रणाम करते हैं॥ ( पद्मावती के रूप के आगे) जग में कोई दृष्टि नहीं आता है, तिस पद्मावती को श्राशा से अप्सराओं के नयन श्राकाश में हैं, अर्थात् सदा उन की आँखें खुली रहती हैं। और योगी, यती, और सन्यासी तप साधते हैं ॥ अपरात्रों की पलक नहीं भंजती । आँखें सदा खुली रहती हैं । यह उन को खाभाविक बनावट है। तहाँ कवि की उत्प्रेक्षा है, कि पद्मावती के रूप-दर्शन से हप्ति नहीं होती, दूसौ लिये अप्सरायें अपनी आँख को आकाश में लगाये रहती हैं, अर्थात् सदा खोले रहती हैं ॥ और योगी यती इत्यादि जो ईश्वर-दर्शन के लिये तप साधते हैं, तहाँ भी कवि को उत्प्रेक्षा है, कि तिस पद्मावती के दर्शन को श्राशा से वे लोग तप. साधते हैं ॥ ५५ ॥ चउपाई। एक दिवस पदुमावति रानौ। हीरामनि तइँ कहा सयानी ॥ सुनु होरामनि कहउँ बुझाई। दिन दिन मदन सतावइ आई पिता हमार न चालइ बाता। वासहि बोलि सकइ नहिं माता॥ देस देस के बर मोहि आवहिँ। पिता हमार न आँखि लगावहिँ जोबन मोर भएउ जस गंगा। देह देह हम लागु अनंगा ॥ हीरामनि तब कहा बुझाई । बिधि कर लिखा मेटि नहिँ जाई ॥ अगिा देउ देखउँ फिरि देसा। तोहि लायक बर मिलइ नरेसा ॥ ७ " =