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पदुमावति । ३ । जनम-खंड । [५५ चउपाई। भइ उनंत पदुमावति बारौ। धुज धवरौ सब करी सँवारौ ॥ जग बेधा तेहि अंग सो बासा। भवर अाइ लुबुधे चहुँ पासा ॥ बेनी नाग मलय-गिरि पइठौ। ससि माँथहि होइ दूइज बइठौ ॥ भउँहई धनुख साधि सर फेरी । नयन कुरंगि भूलि जनु हेरौ ॥ नासिक कौर कवल मुख सोहा। पदुमिनि रूप देखि जग मोहा ॥ मानिक अधर दसन जनु होरा। हिअ हुलसइ कुच कनक जंभौरा ॥ केहरि लंक गढून गज हारे। सुर नर देखि माँथ भुइँ धारे ॥ दोहा। उन्नत दशन- जग कोइ दिसिटि न आवई अछरी नयन अकास। जोगि जती सनिवासी तप साधहि तेहि आस ॥५५॥ उनंत ऊँचौ = जवान । धुज = ध्वजा । धवरी = धवल = उज्वल । करौ कली। कुरंगि= हरिनौ = कुरङ्गी। कौर = क । अधर = अोठ। दसन = दाँत। हुलस-हुलाम करता = उल्लसित होता है। केहरि = केहरी सिंह। लंक =लङ्क =कटि कमर । गवन = गमन = गति । जोगि= योगी। जती = यती। मनिश्रामी= सन्यासी । श्रास = श्राशा = उम्मेद ॥ पद्मावती कन्या (बारौ) जवान (उनंत) हुई, (ईश्वर ने ) उज्वल (धवरी) ध्वजा-रूप सब कलियों को, अर्थात् पद्मावती के सब अङ्ग को, सँवारा (सुडौल किया )। यहाँ बारी, कन्या और बगौचा, दोनों अर्थ बैठने के लिये (करौ) कली का प्रयोग किया है । तिम के ( पद्मावती के) अङ्ग का जो वास (सुगन्ध) है, सो जग को वेध दिया, अर्थात् अङ्ग को सुगन्धि सारे जगत् में फैल गई। इसी कारण चारो ओर (चहुँ पास ) से भौंरे श्रा कर लुभाय गये ॥ नाग-रूप बेनौ (शिर का गुथा हुआ सर्पाकार केश) मलयगिरि में पैठ गई ( (मलयगिरि से पद्मावती का सुगन्धित शिर समझो)। चन्द्रमा दुदूज का हो कर माथे पर बैठा, अर्थात् माथा ऐसा चमकने लगा जैसे द्वितीया का चन्द्र ॥ भौहें धनुष साध कर शर (वाण) फेरने लगौं, अर्थात् भौहें धनुष सदृश और कटाक्ष भर से हो गये । नयनों की शोभा ऐसी हो गई जानौँ भूल कर, अर्थात् अपने