५०-५१] सुधाकर-चन्द्रिका। ७४ जो (जिस ) ईश्वर ने चम्पावती के रूप को बनाया, वही पद्मावती को अवतारने ( उत्पन्न करने ) चाहता है। और (जिम पद्मावती के कारण) ऐसी सलोनी कथा भई चाहती है, कवि कहता है कि, कहाँ पद्मावती का स्थान और कहाँ उस के कथा का प्रचार, यह आश्चर्य है, सो जैमी होनी (कर्म में ) लिखि है मो मिटाई नहीं जाती, अर्थात् वह अमिट है॥ ईश्वर ने जो तिम स्थान में ऐसा दिला (दीपक) दिश्रा, तभी सिंहल-द्वीप का नाम भया (हुआ), अर्थात् पद्मावती के जन्म से तब वह प्रसिद्ध हुआ। प्रथम ईश्वर जो है, मो श्राकाश में उस ज्योति (प्रकाश-रूप दैवी कला) को निर्माण किया (बनाया)। फिर वह ज्योति ( शरीर में वायुद्धारा प्रवेश कर ) पिता (राजा गन्धर्व- सेन ) के माथे में मणि (वीर्य) हुई। भारतवर्षों य विद्वानों के मत से वीर्य का स्थान मस्तक है। फिर वही ज्योति (मैथुन द्वारा) माता (चम्पावती) के शरीर में आई, और तिम के (माता के) उदर में (वह ज्योति) बहुत आदर को पाई (अनेक सुखोपभोग से ), अर्थात् सुन्दर अन्नपानादि के सेवन से वह ज्योति पुष्ट हुई ॥ जैसा जैसा तिस का (पद्मावती का) गर्भाधान पूरा होने लगा, तैसा तैसा दिन दिन ( चम्पा- वती के) हृदय में प्रकाश होने लगा ॥ जैसे झौने बस्त्राञ्चल में दोये का उजेला झलकता है, तैसे-हौ (माता के ) हृदय में वह ज्योति उजेले को देखाती है । सब (मिहल के वासी) (अपने अपने ) मन्दिर को सोने से संवारते हैं, और चन्दन से लौपते हैं। जो शिवलोक (कैलास ) में मणि-रूपी दीया (दोप) था, सो (आकर ) सिंहल-दौप में उत्पन्न हुआ ॥ ५० ॥ चउपाई। भए दस मास पूरि भइ घरौ। पदुमावति कनिया अउतरौ । जानउँ सुरुज किरिनि हुति काढौ। सूरुज करा घाटि वह बाढौ ॥ भा निसि मह दिन कर परगास्त्र । सब उँजिार भाउ कबिलाव ॥ इते मूरति परगटी। पूनिउँ ससि सो खौन होइ घटौ ॥ घटतहि घटत अमावस भई। दुइ दिन लाज गाडि भुइँ गई ॥ पुनि जो उठौ दूइज होइ नई । . निहकलंक बिधि ससि निरमई ॥ बासा। भवर पतंग भए चहुँ पासा ॥ रूप पदुम-गंध बेधा जग
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