७८ पदुमावति । ३ । जनम-खंड। अथ जनम-खंड ॥३॥ चउपाई। चंपावति जो रूप सँवारी। पदुमावति चाहइ अउतारौ ॥ भइ चाहइ असि कथा सलोनी। मेटि न जाइ लिखी जसि होनी ॥ सिंघल-दीप भाउ तब नाज। जो अस दिशा दोन्ह तेहि ठाऊँ॥ प्रथम सो जोति गगन निरमई। पुनि सो पिता माँथइ मनि भई॥ पुनि वह जोति मात घट आई। तेहि आदर आदर बहु पाई ॥ जस अउधानु पूर भा तार । दिन दिन हिअइ होइ परगास ॥ जस अंचल झोनइ मह दौथा। तस उँजिबार देखावइ हौत्रा ॥ - दोहा। सोनइ मंदिर सँवारहौँ अउ चंदन सब लोप । दिवा जो मनि सिउ-लोक महँ उपना सिंघल-दीप ॥ ५० ॥ मलोनी = लावण्य = सुन्दर । दिश्रा = दोप। जोति = ज्योतिः-स्वरूप = दैवी कला। निरमई = निर्माण किया। मात माता । घट = शरीर । श्रोदर = उदर = पेट। अउ- धानु = श्रवधान = गर्भाधान = गर्भ-स्थिति । परगासू = प्रकाश। झोन = झोने में पतले में = महोन में = झांझर । उपना = उत्पन्न हुा ॥ .
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