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80 - 8-) सुधाकर-चन्द्रिका। ७३ वे सभा-रूपी फुल- . पौढा = सिंहासन । मेद = मद मृग-मद । अपूरौ = भर-पूर । माँझ = मध्य। ऊंच = उच्च । इंदरासन = इन्द्रासन । बिगमद = बिकमती है ॥ फिर बैठी हुई राज-सभा को (जो) देखा, (तो समझ पडा, कि) जानों (देव-राज ) इन्द्र-सभा के ऊपर दृष्टि (डौठी) पड गई ॥ धन्य वह राजा है, जिस ने ऐसौ सभा की रचना की। जान पडता है, कि फुलवारी फूली है। लाल, पीले, हरे, इत्यादि विचित्र विचित्र वस्त्रों से सजे हुए सभ्य राजा लोग, जो बैठे हैं, वारो के फूल ऐसे जान पडते हैं ॥ सब राजा मुकुट बाँध कर बैठे हैं । (मुकुट बाँधने से गन्धर्व-सेन को प्रतिष्ठा सूचित होती है, अर्थात् उस सभा में किसी को अधिकार नहीं, कि मुकुट के विना प्रवेश करे)। जिन सब के ( साथ ) सेना है, और डंका बजता है ॥ और बड़े रूपवन्त हैं, ललाट कान्ति (मणि) से दिप रहा है, माथे पर (राज) छत्र है, ऐसे सब राजा (अपने अपने ) पाट ( सिंहामन ) पर बैठे हैं ॥ (उस घडी ऐसी शोभा जान पडती है ) मानों सरो-वर में कमल खिले हैं। (सभा मरो-वर, और स्व-स्व-वेष-धारी सभ्य कमल समझो)। ऐसे सभा का खरूप देख कर मन भूल जाता है, अर्थात् और कामों को छोड कर उसी के दर्शन में अटक जाता है ॥ (उस सभा में ) पान, कपूर, और मृग-मद (मेद) जो कस्तूरी, दून को सुगन्ध (बास) सर्वत्र भर गई है। सभा के मध्य (सब से ) ऊँचा इन्द्र के श्रासन मा श्रासन (सिंहासन) मजा है! तिम पर गन्धर्व-सेन राजा बैठा है ॥ तिम का (गन्धर्व-सेन का) छत्र आकाश में लगा है, श्राप खयं जैसे सूर्य, तैसे तपता है, और (उस सूर्य के तेज से ) सभा कमल सौ खिली हुई है। (राजा के ) माँथे में बडा प्रताप (बडो कान्ति) है ॥४७॥ II चउपाई। साजा राज-मदिर कबिलासू। सोनइ कर सब पुहुमि अकास्त्र ॥ सात खंड धउराहर साजा । उहइ सँवारि सकइ अस राजा॥ हौरा ईटि कपूर गिलावा । अउ नग लाइ सरग लेड लावा ॥ जावत सबद उरेह उरेही । भाँति भाँति नग लागेउ वे-हो। भा कटाउ सब अनवन भाँती। चितर होत गा पाँतिन्ह पाती। 10