०२ पदुमावति । २ । सिंघलदीप-बरनन-खंड । [४६ -१७ = कोई हाँसुल कोई भवर और कोई किताह बखाने जाते हैं, अर्थात् कहे जाते हैं । बहुत प्रकार (भाँति) के हरे, कुरंग ( कुलंग) और महुअ हैं, (इन घोडौँ के इलका और गहिरा रङ्ग हो जाने से अनेक भेद होते हैं ), गरे, कोकाह, और बुलाह जो हैं, सो पाँतो के पाती हैं, अर्थात् पृथक् पृथक् एक एक कतार में बंधे हैं ॥ ऐसे तोक्षण, प्रचण्ड और बाँके घोडे हैं, कि विना हाँके-ही नाँच (नाँच नाँच ) कर तडपते और तपते हैं। बाग से, अर्थात् बाग को लेते-हौ, मन से भी आगे चलते हैं, अर्थात् मन को गति से भी अधिक गति है। इशारा देते आकाश में (उन के ) शिर लग जाते हैं, अर्थात् ऐसे उडते हैं, कि उन के शिर श्राकाश में लग जाते हैं। जब इशारा पाते हैं, समुद्र पर दौडते हैं। (इस तेजी से दौडते हैं, कि) पैर डूबने नहीं पाता, और पार हो जाते हैं ॥ स्थिर नहीं रहते, रोष से (हर घडी) लगाम चबाया करते हैं, और शिर के ऊपर पूंछ फेरा करते हैं । (वहाँ पर) ऐसे घोडे देखे, जानों मन के हाँकने-वाले हैं। और जहाँ कोई पहुचना चाहे, तहाँ नयन (आँख ) के पलक भजने में पहुंचाते हैं ॥४६॥ तब चउपाई। = राज-सभा पुनि देख बईठौ। इंदर-सभा जनु परि गइ डौठी धनि राजा असि सभा सँवारी। जानउँ फूलि रही फुलवारी ॥ मुकुट बाँधि सब बइठे राजा। दर निसान सब जिन्ह के बाजा॥ रूपवंत मनि दिपइ लिलाटा। माँथइ छात बइठ सब पाटा ॥ माँनउँ कवल सरो-बर फूले। सभा क रूप देखि मन भूले ॥ पान कपूर मेद कसतूरौ । सुगंध बास सब रही अपूरौ ॥ माँझ ऊँच इंदरासन साजा। गंधरब-सेन बइठ तहँ राजा ॥ दोहा। छतर गगन लग ता कर स्वर तवइ जस श्रापु। सभा कवल अस बिगसइ माँथइ बड परतापु ॥४७॥ सेना । निसान = निशान = डंका । मनि= मणि । दिप = दिपता बरता है। लिलाटा = ललाट = मस्तक। माँथ - माँथे में । छात = छन । पाटा = पट्ट
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