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go पदुमावति । २ । सिंघलदीप-बरनन-खंड । [४५-४६ लाल, कोई हरे, कोई धू. से, और कोई काले हैं ॥ (पौले, लाल, हरे रंग के हाथौ नहीं देखने में आये हैं। रंग से रंग देने से रंग बदल जा सकता है)। जानौँ गगन (आकाश) में वर्ण वर्ण (रंग-रंग ) के मेघे (बादल) हैं। और तिस आकाश में उन को पौठ ऐसौ जान पडती है, जैसे ठेघा (आधार)। अर्थात् वे हस्तौ इतने ऊँचे हैं, जानों अपनी पीठ से आकाश को रोके हुए हैं। सिंघल के हाथियों का वर्णन करता हूँ, कि एक से एक बढ कर, और एक से एक बलौ हैं ॥ सब हाथौ गिरि और पहाड को ढकेल देते हैं, और वृक्ष को उखाड कर (उचारि), और उन्हें फाड फाड कर, मुख में डालते हैं। (यहाँ गिरि से बडा पहाड, और पहाड से साधारण पर्वत लेना चाहिए। यदि गिरि के स्थान में 'गिर' पाठ हो, तो अच्छा। तब चौपाई का अर्थ 'सब हस्ती (जब ) ढकेलते हैं, (तब ) पहाड गिर पड़ता है, ऐसा करना चाहिये ) ॥ मस्त हाथो बे-समझ हो कर, बँधे हुए गरजते हैं, (इसी कारण उपद्रव के भय से ) उन के कन्धे पर रात दिन महावत रहते हैं । पावँ के धरते-ही, पृथ्वी उन के भार को नहीं सह सकती, हिल उठती है। उन हाथियों के चाल से कूर्म की पीठ टूट जाती है, और शेष का फण फट जाता है ॥ ४ ५॥ चउपाई। पुनि बाँधे रजबार · तुरंगा । का बरनउँ जस उन्ह के रंगा॥ लोले समुंद चाल जग जाने । हाँसुल भवर किवाह बखाने ॥ हरे कुरंग महुअ बहु भाँती। गरर कोकाह बुलाह सो पाँतौ ॥ चाँडि अउ बाँके। तरपहिं तवहिँ नाँचि बिनु हाँके ॥ मन तइँ अगुमन डोलहिँ बागा। दूत उसाँस गगन सिर लागा ॥ पावहिँ साँस समुंद पर धावहिँ। बूड न पाउँ पार होइ आवहिं॥ थिर न रहहिँ रिस लोह चबाहौं। भाँजहिँ पूँछि सौस उपराहौँ । तौख तुखार दोहा। अस तुखार सब देखे जनु मन के रथ-बाह । नयन पलक पहुँचावहीं जहँ पहुँचइ काइ चाह ॥४६॥