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88-१५] सुधाकर-चन्द्रिका। - मन्दिर मन्दिर में फुलवारौ से चोत्रा और चन्दन के वास आते हैं। तहाँ पर छवो मृतु, और बारहो महीने में, रात दिन वसन्त ऋतु रहती है ॥ केवल छवो ऋतु-हौ के कहने से बारहो महीना का बोध हो जाता है। पृथक् महीनों का कहना दाार्थ है। अर्थात् अपने अर्थ को पुष्ट करने के लिये, महीनों को भी पृथक् कहा है ॥४४॥ चउपाई। पुनि चलि देखा राज-दुआरू। महि घूबिअ पाइअ नहिँ बारू ॥ हसति सिंघली बाँधे बारा । जनु सजीउ सब ठाढ पहारा ॥ कवन-उ सेत पीत रतनारे । कवन-उ हरे धूम अउ कारे ॥ बरनहि बरन गगन जनु मेघा । अउ तेहि गगन पोठि जस ढंघा॥ सिंघल के बरनउँ सिंघली । प्रक प्रक चाहि एक प्रक बली ॥ गिरि पहार हसतो सब पेलहिँ। बिरिख उचारि फारि मुख मेलहि ॥ माँते निमते गरजहिं बाँधे । निसि दिन रहहि महाउत काँधे ॥ दोहा। बार धरनी भार न अंगवई पाउँ धरत उठ हालि । कुरुम टूट फन फाटई तिन्ह हसतिन्ह के चालि ॥ ४५ ॥ दुधार = द्वार दरवाजा। महि = महौ = पृथ्वौ। घूचित्र = घूमिये। पाइत्र = पाइये। बारूबारा द्वार। मजीउ = मजीव । कवन-उ= कश्चन = को ऽपि= कोई । सेत = श्वेत । पौत = पोला। रतनारे =रत = लाल । हरे = हरित । उँघा = आधार । पेलहिँ = ढकेलती हैं। माँते = मत्त = मस्त । निमते = विना मत के, बे-समझ, जो कहना न माने । महाउत = महामात्र = पीलवान् ॥ धरनी = धरण) =पृथ्वी। अँगवई = अङ्गी- कार करती है = महती है। कुरुम= कूर्म = कच्छप ॥ फिर चल कर राज-दार को देखा, जहाँ सब पृथ्वौ घूमिये ( परन्तु ) द्वार न पाइये । अर्थात् इतनी भौर चारो ओर से डटी रहती है, जिस से समझ नहीं पडता, कि किस ओर दार है ॥ द्वार पर सिंघल के हाथो बाँधे हैं। वे ऐसे जान पड़ते हैं, जानों सहित जीव के (जिन्दा हो कर) सब पहाड खडे हैं ॥ कोई श्वेत, कोई पौले, कोई ।