सधाकर-चन्द्रिका। चउपाई। निति गढ बाँचि चलइ ससि स्वरा। नाहिँ त होइ बाजि रथ चूरा ॥ पउरौ नउ-उ बजर कइ साजौ। सहस सहस तह बइठे पाजी ॥ फिरहिँ पाँच कोटवार सो भवरी। काँपइ पाउँ चपत वेद पउरी ॥ पउरिहि पउरि सिंह गढि काढे। डरपहिं राइ देखि तिन्ह ठाढे ॥ बहु बिधान वैइ नाहर गढे। जनु गाजहिँ चाहहिं सिर चढे ॥ टारहिं पूँछि पसारहिँ जौहा। कुंजर डरहिँ कि गुंजरि लौहा ॥ -सिला गढि सौढी लाई। जगमगाहिं गढ ऊपर ताई ॥ कनक- दोहा। = नउ-उ खंड नउ पउरी अउ तेहि बजर केवार। चारि बसेरे सउँ चढइ सत सउँ चढइ जो पार ॥ ४१ ॥ बाँचि = बचा कर । ममि = पशि = चन्द्रमा । सूरा = सूर = सूर्य। बाजि = वाजी घोडा । चूरा = चूर = चूर्ण। बजर = वज्र । पाजी = पत्ति = पैदल सिपाही = योद्धा । कोटवार = कोट-पाल = कोतवाल । भवरी = भ्रमण = फेरा। राद् = राजा। नाहर = सिंह । टारहि = टारते हैं = दूधर उधर हिलाते हैं । पसारहि = फैलाते हैं। जोहा जिहा = जीभ । कुंजर = हस्तौ । गुंजरि = गुञ्जार कर = शब्द कर। लौहा = लेता है। बसेरा = निवास-स्थान । पार = समर्थ कुशल ॥ चन्द्रमा और सूर्य उम गढ (गाढ = दुर्ग = किला) को बचा कर नित्य चलते हैं, नहीं तो उन घोडे और रथ चूर हो जाते ( गढ के ठोकर से ) । (इस से अत्यन्त गढ को उँचाई सिद्ध हुई, कि सूर्य चन्द्र को कक्षा भी उस के अधो भाग-ही में है, और पुराणों में कथा है, कि मेरु के चारो ओर चन्द्र, सूर्य घूमते हैं। पिछले दोहे में गढ को सुमेरु कहा है, इस लिये पूर्णेपमा यहाँ पर हुई) ॥ नवो डेवढी वज्र को सजी हुई है, तहाँ हजार हजार योद्धा लोग बैठे हैं ॥ और पांच कोतवाल जो हैं मो भवरी फिरा करते हैं, अर्थात् दिन रात कोट के चारो ओर फेरा किया करते हैं। इस लिये उन पौरियों पर पैर चंपते-ही कपता है ॥ पौरो पौरी पर सिंह गढ कर काढे हैं, अर्थात् बनाये गये हैं। जिन्हें खडे देख कर राजा लोग ( मच्चा सिंह समझ कर) डरते - 0
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