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५८. पदुमावति । २ । सिंघल-दौप-बरनन-खंड । दोहा। चेटक लाइ हरहिँ मन साँठि-नाँठि उठि भा बटाउ जउ लहि गठि होइ फैटि। ना पहिचानि न भैटि ॥३८॥ = =गाल। कटाछ कटाक्ष । - = राहो ॥ सिंगार = ङ्गार। धनि = धन्य । बेसा = वेश्या । तंबोल = ताम्बूल । तन = तनु = पारौर, वा पतला । चौर = वस्त्र । कुसुंभी = कुसुमी = कुसुम-रग का। भौ = खुभिया = काँप। बौन वीणा। मिरिग = मृग। सुर = स्वर। पग = पग= प्रग = पद। भउँह भ्रू । अहेरौ= अहेर करने-वाला । मानि सान = शाण, जिस पर वाण, छूरो, इत्यादि फिरा कर चोखे किये जाते हैं। अलक = लट। कपोल कंचुकि = कञ्चुको = चोलिया = चोलो। जुग = युग = दो । सारौ पासा ॥ चेटक चटक मटक से टोना लगा देना, वा दूत । गठि = ग्रन्थौ = गठरी (रुपये पैसे को)। फैटि = फेट = कमर में लपेटा हुआ वस्त्र । माँठि-नाँठि = बे पैसे कौडी के । माँठ ऊख को कहते हैं, और नाँठ नष्ट का अपभ्रंश है, अर्थात् वह ऊख, जो कि नष्ट, अर्थात् नौरस हो गई हो, यह शब्दार्थ है। अब निर्धनो के अर्थ में प्रचलित है। बटाऊ = बाट चलने-वाला = फिर टङ्गार को हाट, अर्थात् जहाँ रूप बिकते हैं, वह धन्य देश (स्थान) है। तहाँ श्टङ्गार किये वेश्यायें बैठी हैं ॥ मुख में ताम्बूल (पान) खाये हैं, शरीर में कुसुम- रङ्ग का वस्त्र पहिने हैं, वा कुसुम-रङ्ग का पतला वस्त्र पहिने हैं (जिस में ऊपर से अंग का झलक देख पडे )। कानों में जडाऊ (नग से जडी हुई) मोने की काँप, वा कर्ण-फल, पहिने हैं ॥ हाथ में वीणा को लिये हैं, जिन के शब्द को सुन कर मृग ( हरिण ) भूल जाते हैं। और उस के स्वर को सुन कर ऐसे मोह जाते हैं कि एक पैर नहीं चलते, अर्थात् चित्र से खडे रहते हैं। उन की आँखें शिकारी भौह-रूपौ धनुष से, मान पर फेर कर, वाण को मारती हैं। यहाँ दृष्टि-पात को वाण, और कटाक्ष को मान समझना चाहिये, और इधर उधर पुतलियों का फेरना, मानों उस दृष्टिपात-रूपी वाण पर मान फेरना है ॥ गालों पर जो लट लटकती हैं, वह उन के हँस देने पर डोलने लगती हैं, अर्थात् डोल कर पथिकों को अपने पास बुलाती हैं । वे वेश्यायें (पथिकों के सन्मुख होने पर) कटाक्ष को लगा कर, अर्थात् अपनी बाँकी चितवन मे, जीव मार लेती हैं, अर्थात् मूर्छित कर देती है ॥ चोली के भीतर उन के =