३७-३८] सुधाकर-चन्द्रिका। 49 ७ फिर सिंघल के हाट को देखा। जहाँ नवो निधि को सब लक्ष्मी पटौ है ॥ पद्म, महापद्म, शङ्ख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, नन्द, नौल, और खर्व, ये नवो निधि हैं। मोने को बाजार सब कुंकुमा से लौपी हुई है। उस में सिंघल-द्वीप के महाजन बैठे हैं। (साँचे में) स्वरूप (मूर्त्ति) को ढार कर, तरह तरह के चित्र और कटाव को बना कर, हथौडे से (पौट पोट कर, जहाँ कुछ कसर रह गई है, उसे ) बनाते हैं। (उस हाट में) सोने और चाँदी का अच्छा फैलाव हुआ है, अर्थात् बैंचने के लिये, जहाँ देखो, तहाँ मोने रूपे के खेलौने इत्यादि फैलाये हुए हैं। घर के बार, अर्थात् द्वार, में पर्दे लगे हैं, जिन को उज्ज्वल शोभा है, अर्थात् श्वेत वर्ण के सब पर्दै शोभित हैं ॥ रत्न के पदार्थ, माणिक्य, मोती, और होरे डेवढियाँ में जड़े हैं, जिन को ज्योति अनुपम है। ( कोई अनवन का अनेक अर्थ करते हैं, अर्थात् जिन की अनेक प्रकार की ज्योति है ) ॥ और कर्पूर, खस, कस्तूरी, चन्दन और अगर ( हाट में ) पूरे तौर से, अर्थात् चारो ओर, भर रहे हैं । जिधर देखो, तिधर सुगन्ध से हाट महमह महक रही है। जिन्हों ने दूस हाट में नहीं खरीद किया, उन को दूसरी हाट में कहाँ लाभ, अर्थात् ऐसा कोई पदार्थ नहीं, जो इस हाट में न बिकता हो, और जो पदार्थ इस में नहीं है, सो फिर दूसरी हाट में कहाँ लाभ हो, क्योंकि सब हाटों से बढ कर, यह हाट है॥ कोई खरीद कर रहा है, किसी का ( पदार्थ) बिक रहा है। कोई लाभ उठा कर, और कोई मूर को भी गवाँ कर, वहाँ से चलते हैं ॥ ३७ ॥ - चउपाई। पुनि सिंगार हाट धनि देसा। कइ सिँगार तह बइठौं बेसा ॥ मुख तँबोल तन चौर कुसुंभौ। कानन्ह कनक जराज खुंभौ । हाथ बीन सुनि मिरिग भुलाहौँ। सुर मोहहिँ सुनि पइग न जाहौँ। भउँह धनुख तिन्ह नयन अहेरौ। मारहिँ बान सानि सउँ फेरी अलक कपोल डोलु हँसि देहौँ। लाइ कटाछ मारि जिउ लेहौँ कुच कंचुकि जानउँ जुग सारौ। अंचल देहिँ सुभाव-हि ढारौ। केत खेलार हार तिन्ह पासा। हाथ झारि होइ चलहिँ निरासा॥ 8
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