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पत्थर-युग के दो बुत
 

पत्यर-युग के दो बुत ८४ स्त्री-पुरुप समान नही है। सर्वतन्त्र-स्वतन्य खुले ससार मे विचरण करने- वाला धन और साहस का अधिष्ठाता, मसार का नेता पुरुप | और शरीर तथा हृदय की दुर्बल, जन्म-जन्मातर से दासता और सृष्टि के वन्यनो मे फसी असहाय अवला नारी -भला कैसे पुरुप की वरावरी कर सकती है। मैं तो देखती हू, नारी कोई प्राणी नहीं है, पुरुप का भोजन है। वह उसे खा भी सकता है, बखेर भी सकता है। वह पर-स्त्री को आसानी से चुरा सकता है । उसकी सामाजिक स्थिति मे कोई अन्तर नहीं पाता। किन्तु स्त्री पर-पुरुप को चुराकर कहा रखे भला ? उसे तो प्रति ने ऐसे बन्धन में वावा है कि चोरी का माल छिपा नही सकती। वह जगजाहिर हो जाता है। नहीं, नहीं, स्त्री पुरुप की समानता का दावा नहीं कर सकती। में अपने ही को देख रही हूँ न । मैं अभी से अपने को दया की भिखारिन समझ रही हू-दत्त की दया की भी और राय की दया की भी। प्रकृत अधिकारिणी तो मैं प्यार की थी। प्यार क्या मुझे मिला नहीं ? खूब मिला-दत्त का भी और राय का भी। पर अव, अब वह प्यार ही मुझे नाग वनकर डस रहा है। यव तो वह दया करके मुझे छोड दे, डसे नहीं, यही मेरे लिए बहुत है। अब तो मुझे मसार मे भय ही भय नगर पा रहा है। भय की काली छाया हर समय मुझे घेरे रहती है। चाहती ह, राय से खुलकर वात करू । नहीं तो उन्हे यहा न पाने को कह, सर सम्बन्ध तोड द । उन्ह दिल से निकाल फेंक । अभी हुअा ही क्या है । अभी तो मव-कुछ पर्दे मे ही है। अब भी मै सच्चे मन मे दत्त को प्यार का तो मैं निहाल हो सकती है। परतु पता नहीं, यह कौन शैतान मुझ पर सवारी गाठ रहा है, कैसा नाश मुझ पर व्यापा है कि मुझे प्रकाश का मीचा रास्ता नहीं दिखता है। देखती हू कि जहर है, पर वाए जा रही है। सच है-पनन की राह मिननी होती है । एक बार फिसलने पर फिर ममलना मुश्किल है। अब तो दिन मे वाव वा बैठी। मन मे चोर घुम बैठा। शरीर मे ता का दाग लग चुत्रा । मेरा नारी-जीवन मलिन हो गया । पन्नी की पवित्रता म गो एमी। . . . -