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पत्थर-युग के दो बुत
८१
 

पत्थर-युग के दो बुत ८१ सकता है, तब भी वह राई-रत्ती सब कुछ दे डालने ही मे चरम सुख की अनुभूति करता है। इस दासत्व से ही वह स्त्री के स्त्रीत्व को खरीदता है। वह अखिल समार मे विचरण करता है, और स्त्री उसकी प्रतीक्षा मे प्राग्वे बिछाए बैठी रहती है, आतुर-व्याकुल । दत्त अभी देने मे समय हैं। बहुत समय है। देय पदार्थ उनके पास बहुत है। वे अधाधुध देते है । पर जो कुछ वे देते है वह मेरे इधर-उधर चारो ओर विखर जाता है, मैं उसे समेट नही पाती हु, जैसे पहने समेटती थी, पाकर हर्षित होती थी--अब नहीं होती है। दत्त जैसे यह सब देखते हैं। औरत यदि मर्द की मर्दानगी को निर पर उठाकर उन्मत्त होकर हनृत्य न करे, तो मर्द के दान का माहात्म्य भी क्या रहा | मर्द दे और औरत उसे ग्रहण न करे, बखेर दे, बिग पग रहने दे, तो मई यह सहन नहीं कर सकते । देने की यथायता लेन म हरीर विना लिये देना व्यर्थ है। लेने का सुख जहा नही है-वहा देना तुरी नही है। वही मैं देखती हू। दत्त बडे उत्साह से मुझे देव देते हैं । वडा दुर्लभ है वह दान-ऐसा सौ मे से एकाध स्त्री को भी मिलना दुनन है। जिसे मिलता है वह कृतकृत्य हो जाती है, उसका नारीत्व धन्य हो जाता है। पर जव वे मुझे लेने मे एकदम उदासीन देखते है तो वे भी उदान हो जान है । और उनका वह अवसाद भी कितना दयनीय है कि कभी-ननी न दन- कर रो देती है। अब गुसलखाने से उनके गुनगुनाने की याबाज नहीं ग्राती। अव विजलियो की कडक और वादलो की गजना नरे हान्च न नही दीख पडती। अव तो उनकी हंती वरनाती धूप की नाति जरिर होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे वे जीवन ने परगाह अमीन- इसी उम्र मे । यद्यपि अनी उन्होने जीवन का नो नो ही क्या ह । बहुधा वे प्रद्युम्न के साप वाते करते-करते रान का ना हान है और सुबह उने जाकर उनकी मीटी-मीठी बाते न्ने । वन कम और पिता अधिन बन गए हैं। पर न मापद न पन्नी रही। न पाता । अव क्या अजाम होगा मेरा' -