पत्थर-युग के दो वुत ७७ ? एक पुरुप से अनुवन्धित नही थी । परन्तु सभ्यता की मर्यादा ने एक पुम्प के लिए एक स्त्री, और एक स्त्री के लिए एक पुरुप का बन्धन लगा दिया। स्त्री मे सभ्यता और समाज के इम बन्धन को मान्य करके मैं सम्यता की सीमा मे ही अपने लिए एक अनुगत, प्रिय और अपनी पसन्द का पुम्प मागती हू। यह मेरा अधिकार है। इसे मैं नही त्याग सकती-किसी भी प्रकार से नही त्याग सकती। आप कह सकते है कि अब जवानी वीत गई। गदहपचीमी खत्म हो गई। उतरती उम्र है। अव ये सव वाते शोभनीय नही है । ठीक है । ग्राप मेरी उम्र की सव स्त्रियो से यही बात कहिए। उन्हें उनके पतिया ने, परिवार से, परिजनो से बहिष्कृत कर दीजिए तो मै इस अभिनापा को एप समाज का नियम मानकर स्वीकार करूगी। यदि सभी स्त्रिया को उनके सामाजिक जीवन का आनन्द-भोग करने का अधिकार है, तो मुझे क्या नही है ? मैंने कौन-सा अपराध किया है इसके अतिरिक्त विरक्ति से मुझे घृणा है। मै त्याग के महत्व को जानती हू–पर इतना ज्ञान भी रखती हू कि त्यागने की वस्तुग्रो को ही त्यागा जाए और ग्रहण करने योग्य वस्तुप्रो को ग्रहण किया जाए। प्रात काल उठते ही मैं मल-मूत्र त्याग करती है, और पीछे फिरसर उन योर नही देखती। अव आप कहे कि मैं ससार को त्याग द्, नन्यामिनी दन जाऊ, आपके भोगो को देखती रहू, कलपती रह, अपने भाग्य को दुनि मे परिवर्तित कर द्-तो यह किसी कमजोर मुख स्त्री ने ही ननव हा सकता है, मुझने नहीं। मै समाज के सर्वोच्च शिखर पर रहती, प्रतिष्ठा और मानन्द सर्वोच्च प्रासन पर बैठगी, और जीवन के तव प्राप्नयो को प्राप्त की। जिस अात्मसम्मान और आत्मनिप्टा के नाम पर नने अपना घर, पनि, पुनी, प्रतिप्टा और समाज को त्यागा है, ने न बानी नहीं प्राप्त करूगी, और उनकी प्राप्ति के लिए प्रारगो नी बाजी लगा दी। वर्मा एक निरीह पुरप है, यह मने देखा है। वे एर प्रतिष्टित न. -
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पत्थर-युग के दो बुत
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