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पत्थर-युग के दो बुत
 

७४ , पत्थर-युग के दो बुत नहीं पाई थी, जिसके इम पहलू को सोचने का मुझे अभी तक अवसर ही नहीं आया था। वह यह कि जीवन मे क्या केवल प्यार ही ऐमी महान वस्तु है कि जिसके लिए जीवन बदल दिए जाए, और ऐसा दुसाहस किया जाग जैमा मैं कर चुकी ह ? अब मैं कुछ-कुछ समझ रही है कि ज्यो-ज्यो प्यार की प्रगाढता वडनी जाती थी, और वह निसरता जाता था, तथा शरीर ने हटकर आत्मा मे, चेतना मे प्रविष्ट होता जाता था—त्यो-त्यो वह अपना नया रूप बदलता जाता था। वह रूप था कर्तव्य । सचमुच, मेग प्यार समूचा ही-औरत का भी, पत्नी का और मा का भी-प्यार न रहार कर्तव्य बन चुका था, कर्तव्य का रूप धारण कर चुका था। और उमी ने मेरे इस जीन मे उत्तरोत्तर गरिमा, पवित्रता, आत्मविश्वास पीर दृढता दी थी। उसने मुझे प्रेरणा दी थी कि प्यार केनत इन्द्रिय-वास- नामा को ही तृप्त करनेवानी वस्तु नही है, वह गीवन को ममार के साथ दृढ ग्रामीयता के मन म पावनेपाली वस्तु भी है, जिमसे समाग बनता है, तिमन ममाल तो निठा पनी है, और जो सामान को मर्यादा में वाकर सभ्यता के मच्चे स्वप में प्रकट करता है। यह काम म्यी या पर पुम्प का नहीं, सका है। करोडो स्त्री-पुरुप युग-युग में प्रेम को प्रगाट-प्रगाटतर बनाते हुए दमी माति ममाज के चिरन्तन निष्ठा के रूप को नन्यता के निवार को प्रस्ट करते रहे है। अत्र उस प्यार का शायद मन दुम्पयोग किया है, उसे फिर से इन्द्रिया के भोगो की ग्रोर लगाने की राह पर निकल पाई है। परन्तु क्या प्रम फिर ने नया यौवन नी मुझे प्राप्त हो सकता है फिर उन मन्ड उमगो के तानो का नन मे वार उठ सकता है? म नो पार्दम परम तक प्रेम की वामना का स्वाद तृप्त हाकर चव नती। प्रब उसकी ना रहा है? म तो उसने ग्रगती पीटी मार मा भी हो वकी। प्रेम का वह पात्मत्य रूप भी नव चक-बनाकर चन्म हा गया। अब यह पानी ही में 7411 नाद महीन वाद न नई-नवेती बनने । रही।नय पान म f- बतार, ना प्रब ने बाईस वप व मी पी। गहनामा बगी, निया -