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पत्थर-युग के दो बुत
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पत्थर-युग के दो वुत ५७ । तौर पर दूसरे काम में नहीं लाई जा सकती है । न काम-वासना सतानो- त्पत्ति के लिए है—वह तो एक विशेप सुख और जीवन की स्फूर्ति के लिए है। चिकित्सको के इस निर्णय ने मेरे मन को भकभोर डाला और मैं एक जीवन-साथी की प्राप्ति के लिए छटपटाने लगा। पर एक माथी को कैसे प्राप्त करू, यही मेरे लिए समस्या बन गई। मैंने फ्रायड के मनोविज्ञान का मनन किया । उनका अचेतन-सिद्धान्त बडा अद्भुत है । उनका कथन है कि मन के सव व्यापार हमे मालूम नही होते, और मन का एक निर्नान- प्रदेश होता है। यही निर्ज्ञान-प्रदेश हमारी कामनायो की समष्टि है। निरुद्ध होने पर भी हमारी कामनाए मन से सर्वथा दूर नहीं होती, प्रत्युत मन मे आत्म-प्रकाश करने की चेष्टा करती है। जीवन में जो छोटी-छोटी भूलें होती है-उनके मूल मे भी यही निरुद्ध कामना काम करती है । हमारे मन मे ऐसी अनेक कामनाए होती है जो सामाजिक वन्धन तथा अनुगानन के कारण अमल मे नही पा पाती। पर जब हमारी बुद्धि जागरित होती है, तव हम उन्हे बलपूर्वक टालते जाते है, पर स्वप्नावस्था मे जव बुद्धि अकर्मण्य बन जाती है, तो हमारी ये निरुद्ध कामनाए स्वप्न मे नाना प्रकार के रूप धारण करके आत्म-प्रकाशन करती हैं। उन निरुद्ध कामनायो मे अनेक ऐसी है जिनका सम्बन्ध काम-बानना से है। मनुष्य को सामाजिक वन्धनो के कारण उन्हें निरुद्ध करना पड़ता है और वे रुद्ध कामनाएँ अनेक उपायो से तृप्ति-लान करने की चेष्टा करती है, जिनके रूपान्तर नाना मानसिक रोग है । मेरे मस्तिष्क मे जव ये जटिल काम-समस्याए उत्लन रही पी तार न निश्चय ही मानस -रोगो की ग्रोर धकेला जा रहा था, तभी माया मेर नपर मे पाई । परन्तु मैने माया को नहीं--माया ने मने अपनी योर वा। मैं कह चुका है, उसकी ग्राय मुजसे अधिक है। नत्री नानाजिन मिति भी मुभते ऊपर है। मेरे मन की शाए, निनत्र, निरोप प्रकृत नूब भी एक स्त्री के लिए अत्यन्त नपानक प ने न पीडित र वहन