पत्थर-युग के दो बुत माता कह सकता है कि वे मुझसे प्रेम भी करते है। इसी से उनके घर मेरा आना- जाना प्रारम्भ हुआ। माया से परिचय हुग्रा । मैं नही जानता, क्यो ? पहली ही नज़र मे मैंने माया को पसन्द कर लिया। उसकी उम्र मुझसे ज्यादा है। वह वाईस वर्षों से राय की पत्नी है, जवकि मैं अभी तक कुमारा हू। वह चालीस से ऊपर की आयु को पहुच चुकी है और अभी मैं केवल छत्तीस का ही हू । फिर भी मेरा मन उसे देखकर उसपर अाकर्पित हो गया । और मैंने देखा, माया ने इसे जान लिया, और वह नाराज़ नहीं हुई, सदय हुई। राय को मेरे ऊपर सन्देह तक नही हुअा। और हम दोनो-मैं और माया-भी सभवत अज्ञात ही एक-दूसरे की पोर यार. पित होते चले गए। परन्तु प्रेम की भापा मैं नही जानता प्रेम के तत्त्व और प्रेम के फल को भी शायद नही जानता। आपको ग्राम्चय हो है--मेरी उम्र के आदमी को आजकल अधेड कहा जाता है । सो मेरा यह प्रेम-सम्बन्धी अज्ञान सर्वथा हास्यास्पद है। परन्तु मैं एक दरिद्र परिवार का सदस्य है, जिसे लोग गदहपचीसी कहते है । वह उम्र तो मेरी जीवन- संघर्प मे पिस गई। पिता स्वर्गवासी हो गए। माता, दो भाई और दो कुमारी बहिनो का बोझ सिर पर लेकर मैं अपनी कच्ची बायु मे ही, विना गृहस्थ वने ही गृहस्थी बन गया। मेरी सारी भावुकता पट की चिन्ता ने खर्च हो गई, और उभरता हुग्रा यौवन भोजन के बोझ ते चननाच्न हा गया। जीवन की रगीनियो से में वचित ही रहा। विलान ग्रोर एवष तो दूर, जीवन मे सतोप और तृप्ति के दशन भी नहीं हुए- येवल नत्र ही को मैंने जाना-पहचाना और अपनी जवानी अर्पित कर दी। वेशक मैं कहता हूँ - मेने अपनी नव को अपनी जवानी ग्रपिन र दी, और अव यद्यपि मैं केवल छत्तीस ही वरन का पर जवानी नी उना मैं अपने भीतर नहीं देख रहा । अाज भी तो मन्त्र ने लट रहा है । वन्निा की शादी हो गई। एकमात्र पैतृक नसान रह्न हा गया । र नाईकनी पट रहा है, दूसरे को नौकरी मिली है, पर बनी वह पिनी को नट 1 देने के योग्य नहीं है। जितना नीरमाताइ, नबराव हो जाता है । जार व
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पत्थर-युग के दो बुत
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