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पत्थर-युग के दो बुत
 

पत्थर-युग के दो बुत ही तो खवर लेनी चाहिए। और मैंने उससे कहा, "रेखा, क्या बात है कंसी हो गई हो तुम?" "क्यो ? क्या मैं रेखा नही रही एक फीकी हँसी हँसकर उसने कहा और पाखें नीची कर ली। मैंने कहा, "सचमुच तुम वह रेखा नही हो, वहुत बदल गई हो वताओ, क्या बात है ? मुझसे नाराज़ हो?" "नही।" इतना कहकर वह जाने लगी , मैंने रोककर कहा,"व्हरो' तो वह मुह फेरकर चुपचाप खडी हो गई, जैसे सचमुच कोई पर-म्ग्री ह ।। क्या यह वही रेखा है जो वात-बात मे हसती थी, हंसते-हँसते जिसके गाल मे गढे पड जाते थे, जो बात मे वात निकालती थी। जव किसी बात पर ज़िद करती थी, गले मे दोनो हाथ डालकर भूल जाती थी और ज़रा-से अनुग्रह पर तडातड चुम्वन करने लगती थी। 'तुम बहुत ही अच्छे हो, उसका यह वाक्य कितने गहरे विश्वास से निकलता था। पर अब क्या अव तो वे सव वातें हवा हो गई। तब उसकी याद-मात्र करके रगो मे लहू गर्म हो जाता था। दफ्तर के काम मे यकावट ही नही प्रतीत होती थी। जव घर लौटने का समय होता था तो खून की एक-एक बूंद नाचने लगती यी-किन्तु अव तो अवसाद ही अवसाद है-ठण्डा और बासी मैंने उठकर उसे निकट बुलाया, गोद मे विठाकर प्यार किया। बहुत कहा, बहुत कहा, "दिल की बात कहो, दिल की धुण्डी खोलो, क्या हुआ है तुम्हे ? क्या तकलीफ है तुम्हे ? क्या चाहती हो तुम?" किंतु सवका जवाव वही-'नहीं, उसी प्रकार मुह फेरकर । प्रोफ, कितनी ठण्डी थी वह 'नहीं'-जैसे छुरी की नोक हो । गुस्सा या गया मुझे। मन हुआ कि फेक दू उठाकर । शायद वह भी मेरे मन की बात जान गई और जाहिस्ता से मेरे अकपाश से निकलकर चुपचाप बैठ गई, उसी भाति मुह फेरकर । मैं विना ही खाए-पिए आफिस चला गया। मैं कैसे बर्दाश्त करू यह सव ? अाखिर मेरा दोप भी तो हो । मैं तो रेसा को दिल से प्यार करता हूँ। मैं इस बात पर गर्व भी कर सकता ह कि मेरे जैसा प्यार अपनी ,