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पत्थर-युग के दो बुत
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पत्थर-युग के दो वुत अर्पण करने के लिए उत्सुक खडी है, वह समझती है कि दत्त -उसका पति ही उसका हकदार है। यह उसकी अपनी समझ नहीं है, उस समाज की परम्परागत समझ है जिसमे वह पली है , वह चाहती है कि एक वार उसका वह पति उसके प्यार पर नज़र डाले और वह उसे उसपर न्योछा- वर करके अपना नारी-जीवन धन्य करे। पर दत्त को उस ओर देखने की अभी फुर्सत ही नही मिली है। यह मै आज पाच साल से देखता चला या रहा हू। शायद प्यार की परख ही उसे नही है। वह एक बैल है जो अपने आफिस मे जुटा रहता है । रेखा उसकी पत्नी है, उसके घर ही चहारदीवारी मे सुरक्षित है-उसका शरीर उसके लिए रिज़र्व है, बस, उसके लिए यही काफी है। वह गवा यह नहीं जानता कि रेखा पत्नी ही नहीं, एक औरत भी है। पत्नी और औरत मे क्या अन्तर है, इसे शायद समझने का शकर भी दत्त को नहीं है । औरत की भूख भी उस गधे मे नही है। मैने तो नही सुना कभी कही उसने किसी औरत को पसन्द किया हो, ग्राख उठाकर देखा हो, औरत मे अानन्द की अनुभूति की हो । अपने आफिस मे वह एक परिश्रमी साड है, और घर मे एक मूर्ख असावधान पति । फिर रेखा उमसे खुश कैसे रह सकती है कव तक वह अपने छकडा-भरे पाप को लिये वैठी रहेगी, इस प्रतीक्षा मे कि वह उसकी ग्रोर देखे और वह उसे उसको समर्पित करे । पर वह कर भी क्या सकती है | मैंने उसे रोते देखा है। कैसे अफसोस की बात है । वे प्यार से लवानव ग्राले प्रासुग्रो से तर हो, चुम्वन के अभिलापी होठ घृणा से सिकुड जाए। उमगो से भरा हुआ दिल बैठ जाय । और इसी उम्र मे। भई, मैं तो हमेशा से यही कहता रहा है कि यह विवाह-जैमी नामुराद चीज़ दिलो को मसोम डालने के लिए ही है। इससे किस दिल ने कुछ पाया। पाच साल हो गए, पर आज तक रेखा ने मेरी योर गाव नहीं उठाई यी, जिसका मैं इन्तज़ार सदैव करना रहा हु । वहुत नारतो वे प्यार का आनन्द मैंने प्राप्त किया, पर इतनी प्रतीक्षा किनी की नहीं करनी पड़ी। म जव उसे भाभी कहता तो उसके जवाव मे जो कुछ उतवी पालो मे पाना -