दिलीपकुमार राय - - पहली बार जिस दिन मैंने रेखा को देखा-उसी क्षण मैंने समझ लिया वह मेरी है, मेरे लिए है। विवाह ज़रूर उसका दत्त के साथ हुआ है। दत्त उसका पति है—पर मर्द उसका मैं हूँ। आप जिस चरित्र की वात कहते हैं, मैं उसका कतई कायल नही है। इस सम्बन्ध मे मेरे अपने अलग विचार हैं। मुझे इस बात की परवाह नहीं है कि मेरे विचारो का ताल-मेल दूसरो के विचारो से होता है या नहीं। मैं अपने ही विचारो को ठीक समझता हू। मैं जिस विभाग मे नौकर ह उसका ठीक-ठीक काम परिश्रम से करता है। मेरे ऊपर काम की ज़िम्मेदारी भी है और परिश्रम भी मुझे करना पडता है। दोनो ही बातो को मैं ठीक-ठीक समझता हू, ठीक-ठीक उन्हे अजाम देता हू। बिला शक गर्जमन्दो से मैं रिश्वतें लेता हू, उनके काम भी कर देता है। ऐसे काम पागे-पीछे होते ही है। मैं गर्ज मन्द लोगो की इच्छा और आवश्यकता के अनुसार कुछ पहले कर देता हू, कुछ वाते जान लेने मे उन्हे सुविधाए दे देता हू-इससे मेरे ग्राफिस की कोई हानि नही होती। इसका नजराना मै गर्जमन्द लोगो से लेता है। नियम- कायदो की अपेक्षा मैं यादमी को महत्त्व देता हू। नियम-कायदो को तोड- कर मैं आदमियो की सहायता करता है। मेरी नज़र मे यह आदमी ती सेवा है। बस, वात इतनी ही है कि इस सेवा के बदले म उनने नजराना लेता ह्, मुफ्त उनका काम नहीं करता। इसे लोग 'रिश्वत' कहते हैं। म ऐसा नही समझता। वे खुशी से देते है। मै खुगी ने लेता है। म् व लो। कहते है मनुप्य को त्याग करना चाहिए। मैं भी त्याने मन्व को
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