१८२ पत्थर-युग के दो वुत मे जले, भुने । पुरुप की प्रतीक्षा पूरक रूप में नही, जीवन-माथी के रूप मे नही, वासना-पूर्ति के माध्यम के रूप में। कैसी भयानक है यह एकागी समाज-व्यवस्था । खराव, बहुत खराव | स्त्रियो का अविकसित मस्तिष्क, भावुक हदय यदि वासना के प्रावेश मे अपना मतुलन खो दे, तो यह केवल उसी का दोप नही है, समाज-व्यवस्था का भी दोप है। यौन आवेग मन शारीरिक पावेग है। इसमे एक वह गरीर-यावेग है जिसका सम्बन्ध जननेन्द्रियो की चरम उत्तेजना के बाद क्षरण पर सीमित है। दूसरा वह जो प्रत्येक जोडीदार मे एक-दूसरे के निकट शरीर से मानसिक सम्पर्क स्थापित करता है। यौन प्रक्रिया वडी जटिल है उमका सम्बन्ध मन शारीरिक आवेग से है। घरेलू जानवरो एव सभ्य मनुष्यो मे तो यह एक सरल किया है, परन्तु प्राकृतिक अवस्था मे यह उतनी सरल नहीं है। आवेग की चरम प्राप्ति के लिए पुल्प को अतिशय सक्रियता और प्रात्मप्रदर्शन तथा स्त्री को दीर्घ साधना और ध्यान करना पडता है । मूल लक्ष्य यौन स्फीत की वृद्धि है । वह दोनो मे समान रूप से, पूर्वराग द्वारा, जो शारीरिक भी हो और मानसिक भी, होना चाहिए। इस यौन स्फीत की धीमी-तीव्र गति ही मे प्रेम की डोर बची होती है, जिससे खिंची हुई औरत अवश अवस्था मे एक पुरुष को त्यागकर दूसरे पुरुप तक पहुंच जाती है, और यह भूल जाती है कि उसका कोई सामाजिक रूप भी है या नहीं। स्त्रिया दूरदर्शिनी नही होती। उनमे स्वाभाविक दुर्वलताए भी हैं और मानमिक भी। इसी से समाज ने उन्हे अपने नीति के बन्धनो मे कस- कर वावा हुअा है । आज तो मैं उन सब बन्धनो के महत्त्व को, अावश्यकता को समझ गई है। कल तक ही तो मैं उन सब बातो का प्रबल विरोध कर रही थी। तब मैं नहीं जानती थी कि मनुष्य का सामाजिक सगठन ही उसके व्यक्ति के सव स्वायों का सरक्षण है। पर 'अव पछताए होत क्या, जव चिडिया चुग गई सेत ।' किन्तु अव दत्त की रक्षा कैसे की जाए? मैं अपना शरीर, प्राण और पावरू तक दे सकती हूँ। में जान की बाजी लगा दूगी और प्रत्येक मूल्य
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