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पत्थर-युग के दो बुत
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पत्थर-युग के दो बुत ? भाव अपने होठो पर प्रकट किया और चाय का कप एक ओर रख, अख- वार उठा लिया। मैं उठकर चली आई। नारी-जीवन की निरर्थकता मैं समझ गई। क्या पुरुष को भी नारी नियन्त्रण मे रख सकती है ? ऐसा कहना तो पहाड से सिर टकराना है। कितना बडा ससार है पुरुपो का और कितने वडे व्यापक जीवन पर दृष्टिकोण है उनका | उसकी समता हम घर की चहारदीवारी मे रहकर भला कहा तक कर सकती हैं ? अव मैं रोती भी कहा तक 'मैंने सव किया। समझौता किया उनसे- "पीते ही हो तो -घर मे वैठकर पियो। जैसे मेरे पाने से पहले पीते थे।" याधी-पाधी रात तक घर से बाहर रहना और फिर अपमूठित अवस्था मे घर लौटना-इसमे क्या सार है भला अाखिर मेरा भी तो एक मसार है जो उन्ही मे सीमित है। ग्राफिस के समय पर तो मेरा चारा नही-पर उसके बाद का समय तो मेरा ही है, जिसके सहारे मैं जीती हू, मेरा नारी- शरीर जिन्दा रहता है। और वे घर मे पीने लगे। मैं भी सव-कुछ सह गई। इसी समय जन्म हुआ प्रद्युम्न का। वहुत खुश हुए वे। मेने समझा, मेरी दुवारा सुहाग-रात पाई है-पर धीरे-धीरे सब कुछ पुराना होता गया। क्लव तो वे अवश्य ही जाते थे, पर जल्दी पा जाते थे। इतना सहारा था। फिर प्रद्युम्न को पाकर मै उसी में सिमट गई थी-एक नया अाधार मिला था। गराव का पीना अव मुझे खलता न था। तीसरा जन्म-दिन पाया और फिर चौथा। पर उनकी हाज़िरी उस दिन न हुई। मेरा रोना-नीवना सभी वेकार गया -उस दिन तो वे अवश्य ही बाहर ही पीते ये यौर मद- होश होकर ग्राधी रात के वाद घर लौटते थे। अब इस वार मैने एक ठान ठानी पी। तैयारी मैने नव की थी, पर निमन्त्रण मैने किसी को नहीं दिया। घर दीपमालिकायो से न ना या या और टेवनी पर विविध पक्वान तजे ये -पर महमान एक भी न पा। मैं अकेली ही घर मे पी। नव नौकरो को भी मैने विदा पर दिया पा। पर अव यह