१७४ पत्थर-युग के दो बुत - . को तथ्यत केवल एक मात्र वही औरत जानती है, जो जूठी हो चुकी, विश्वासघातिनी हो चुकी, बेवफा हो चुकी, पर-पुरुपगामिनी हो चुकी । कौन पति उस पर पतियाएगा? जी चाहता है पूछू रेखा से। शायद सच्चा जवाब दे दे ! शायद प्रद्युम्न मेरा ही पुत्र हो, मैं ही इसका पिता होऊ | अब तक तो मैं अपने ही को पिता समझता रहा था। पर यह मैं कहा जानता था कि रेखा वेवफा है, पर-पुरुप- गामिनी है। अव तो जैसे कोई जजीरो से जकडकर मेरे मन को बाघ रहा है। प्रद्युम्न की तरफ बढने ही नही देता। पर बेचारे बालक को क्या पता है इन सब बातो का | वह तो आज बहुत खुश है। इतने दिन से वह परेशान था—मैं बाहर गया था, रेखा घर से बेघर हो रही थी। वेचारा वच्चा मा- वाप दोनो को खोकर अकेला रह गया। आज उसे प्राप्त है—मा भी, बाप भी। पर शायद प्यार न बाप का प्राप्त है न मा का। मेरे मन मे तो शका का भूत सवार है। और रेखा उसे यदि प्यार करती तो घर से बेघर क्यो होती | कुछ अपराव था तो मेरा हो सकता था, बेचारे बालक का तो नहीं। पर जाने दो इन बातो को। पुराने अभ्यास ही से सही, मुझे प्रद्युम्न को प्यार करना चाहिए। रेखा को तो मैं अभी भी प्यार करता हू-वेवफा को, कुल-कल किनी को। फिर बालक ने क्या विगाडा है ? वह वात भी मैं पूछ लूगा, यदि मैं वापस सही-सलामत लौट आया, यदि मुझे स्वय न मरना पडा। और यदि मुझे ही मरना पड़ा तो केवल कुछ घडी के जीवन के लिए एक और दर्द को दिल मे क्यो उत्पन्न करू प्रद्युम्न बहुत वातें कर रहा है, और मैं सब का उत्तर दे रहा हूँ। कुछ ठीक, कुछ वे-ठीक । रात मेरे वक्स से बहुत चीजे उसे मिल गई है। मेरे अाग्रह से रेखा ने बडे सकोच से वह कीमती साडी पहनी है जो मैं ट्र पर जाकर खरीदकर लाया हू उसके लिए। क्यो साहब ? सकोच से क्यो? चाव से क्यो नही ? खैर, जाने दीजिए। शोफर कार ले आया है। अजव ढग से वह देख रहा है हम लोगो को जैसे वह राज़दा हो । लगता है वह मन ही मन मुझ पर हस रहा है, मानो
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