१७२ पत्यर-युग के दो वुत यौन वृत्ति उसी प्रकार अपनी अभिव्यक्ति करती है जैसे पोपण की निसर्ग- वृत्ति भूख के द्वारा अपनी अभिव्यक्ति करती है, यौन उत्तेजन और मतुष्टि के बीच वहुत-सी बातें है। वे शारीरिक भी है, और मानसिक भी, सामा- जिक भी है और व्यक्तिगत भी। उन वातो मे जीवन-मघर्प की पराकाष्ठा है । खासकर तव जव अनुराग-भावना का वृणा मे परिवर्तन हो जाए। प्रेम और घृणा का पालम्बन जीवन का गम्भीर खतरा बन सकता है। ऐसी अवस्था मे रागात्मक आवेग चिन्ता में परिवर्तित हो जाते है जो दमन के प्रक्रम का नियत परिणाम हैं। यही राय वाला मामला ले लें। ऐसे दुराचारी को मौत के घाट उता- रना उचित है जिसने गृहस्थ-वर्म की पवित्रता को भग किया है। कानून इस सम्बन्ध में कोई सहायता नहीं करता । कानून कहता है, कोई हर्ज नहीं, तुम्हारी स्त्री तुम्हारे साथ रहना नहीं चाहती । तुमसे प्रेम नही करती तो कोई बात नही है। उसे वहा चली जाने दो जिससे वह प्रेम करती है, और तुम कोई भी दूसरे आदमी की पत्नी ढ्ढ लो, जो तुम्हे प्यार करे। परन्तु मैं इस कानून को कैसे स्वीकार कर सकता हूँ ' यह पलियो की अदल- वदल विलकुल वाहियात वस्तु है। फिर केवल प्यार ही तो पति-पत्नी के वीच का माध्यम नही। पारिवारिक और बहुत-से वन्धन हैं। नही, ऐसा व्यक्ति दुनिया मे जिन्दा नहीं रहना चाहिए जो दूसरो की पत्नियो को हरण करता है, गृहस्थ की पवित्रता और निष्ठा को नष्ट करता है। मैं उसे आज मार डालगा। परन्तु वह मेरा मित्र था। उसका प्यार याद आता है। वीते दिन याद आते है। जब हम दोनो खूव हसते थे, साते-पीते थे, मौज-मजा करते थे। तो न सही। मै उससे कहगा कि वह रेखा से व्याह कर ले और अपने को गोली मारकर आत्महत्या कर लूगा। बस, बखेडा खत्म । मेरी भी सव तकलीफें सत्म और रेखा की वाधा दूर। प्रोह, यह मेरे सिर मे कैसे तेज़ चाकू चल रहे है । लेकिन अब मैं बेहोश होना नहीं चाहता। रिवाल्वर ठीक है। गोलिया भरी हुई है। परन्तु J
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