१५४ पत्थर-युग के दो वुत 1 "क्या आज से पहले भी गई थी ?" "रोज़ जाती हैं।" < "किस वक्त ?" "दोपहर मे खाना खाने के वाद।" "और ग्राती कब है ?" "कभी दस बजे, कभी वारह बजे रात को।" यह क्या ? ये हजारो तोपें कैसे गडगडा उठी । भूचाल आया है ? पैर लडखडाने लगे। सिर घूमने लगा। ? यह क्या क्या "पाया ।" ? ?" "क्या आपकी तबीयत खराब है ?" "खराव है । मेरा विस्तर ठीक कर दो।" "जी, अभी ठीक करती और पाया चली गई विस्तर ठीक करने । मैं बैठ गया हू, प्रद्युम्न के पास । प्रद्युम्न जग गया है । वह मेरे गले मे दोनो हाथ डालकर लिपट गया है । उसे छाती से लगाकर मैं रो रहा है। इतने ग्रासू कहा से उमडे चले आ रहे हैं ? कलेजा मुह को पा रहा है । क्या जूडी चढी है, या मैं मर रहा ह प्रद्युम्न कह रहा है, "डैडी, "मेरे लिए क्या लाए हो उसके होठ हिलते दीख रहे है। पर उसने क्या कहा, सो मुनाई नहीं दिया । ये तोपे जो गडगडा रही हैं कान मे | मैंने कहा "क्या कहा वेटे ?" "ईडी, ममी मुझको अकेला छोडकर चली जाती है। मुझको डर लगता है । तुम उनको मारना।" "अय, मारना, ठीक-ठीक ।" वह पाया पा रही है। ' मालिक, पापका विस्तर तैयार है। आप पाराम कीजिए।" "जाता ह, जाता है। तुम भी सो जानो बेटे। तुम्हारे लिए में बहुत-मी चीजें लाया हूँ, मुबह द्गा।" 64 .
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पत्थर-युग के दो बुत